________________ पदार्थान्वयः- साधु अव्वहिओ-दीन भाव से रहित होकर खुहं-भूख को पिवासं-. पिपासा को दुस्सिजं-दुःशय्या को सीउन्हं-जाड़ा और गर्मी को अरइं-अरति को तथा भयं-भय को अहिआसे-सहन करे क्योंकि देहदुक्खं-शारीरिक दुःखों को समभाव पूर्वक सहने से ही महाफलं-मोक्ष रूप महापल प्राप्त होता है। मूलार्थ-साधु को क्षुधा, तृषा, दुःशय्या, शीत, उष्ण, अरति एवं भय आदि कष्टों के होने पर कभी भयभीत नहीं होना चाहिए, बल्कि पूर्ण दृढ़ता से इन आए हुए दुःखों को सहन करना चाहिए। क्योंकि, असार शरीर से सम्बन्ध रखने वाले कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करने से ही मोक्ष महाफल की प्राप्ति होती है। टीका- इस गाथा में भी, साधु-वृत्ति विषयक ही उपदेश किया गया है। जैसे श्री भगवान् उपदेश करते हैं कि, हे आर्य साधुओ! साधु को अदीन भावों से भूख और प्यास, शीत और उष्ण, दुःशय्या विषम भूमि, मोहनीय कर्म से उत्पन्न हुई अरित (चिंता) तथा व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं से उत्पन्न हुआ भय, इन सब कष्टों को सहन करना चाहिए। क्योंकि, क्षुधा आदि. . द्वारा साधु के शरीर को जो दुःख होते हैं; उन्हें सम्यक्तया सहन किया जाए तो साधु को मोक्षरूप महाफल की प्राप्ति होती है। यह शरीर असार है इसका क्या मोह ? एक न एक दिन इसे छोड़ना ही है, इससे जो कुछ कमा लिया जाए वही थोड़ा है।' इस प्रकार के भावों से मुनि को कष्टों के समय धैर्य धारण करना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, रात्रि भोजन का निषेध करते हैं:अत्थं गयंमि आइच्चे, पुरच्छा अ अणुग्गए। आहारमाइअं सव्वं, मणसा विण पत्थए॥२८॥ अस्तंगते . आदित्ये, पुरस्तात् च अनुद्गते। आहारमादिकं सर्वं, मनसाऽपि न प्रार्थयेत्॥२८॥ पदार्थान्वयः- आइच्चे-सूर्य के अत्थंगयंमि-अस्त हो जाने पर अ-तत्पश्चात् पुरच्छाअणुग्गए-प्रात:काल में सूर्य के उदय होने से पूर्व सव्वं-सब प्रकार के आहारमाइअंआहारादि पदार्थों की मणसावि-मन से भी न पत्थए- प्रार्थना न करे। . मूलार्थ-दयालु मुनि को सूर्यास्त होने से लेकर प्रातः काल जब तक सूर्योदय न हो जाए तब तक सभी प्रकार के आहार रूप पदार्थों की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए। टीका-सूर्यास्त हो जाने के पश्चात् जब तक सूर्योदय न हो, तब तक रात्रि में जितने भी आहार आदि पदार्थ हैं; उन सभी के खाने की साधु को मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए। जब मन से इच्छा तक करने का निषेध है, तो फिर वचन और कर्म का तो कहना ही क्या ? उनका तो मन के साथ वैसे ही पूर्ण निषेध हो गया। सारांश यह है कि, साधु को इस व्रत का पालन पूर्ण दृढ़ता से करना उचित है। क्योंकि, इस व्रत के पालन में असावधानी करने से साधु को बड़ी भारी हानि उठानी पड़ती है। इस व्रत के प्रति असावधानी करने से समस्त व्रतों के प्रति 326] दशवैकालिकसूत्रम् [अष्टमाध्ययनम्