SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी साधु, सच्चा साधु नहीं हो सकता। वह गुण क्षमा है का।साधु को वीतराग प्रतिपादक शास्त्रों में जो क्रोधादि के दारुण फल वर्णन किए गए हैं, उनको अच्छी प्रकार से श्रवण करके चाहे कोई कैसा ही क्यों न अपने प्रति दुर्व्यवहार करे, उस पर कभी क्रोध नहीं करना चाहिए। यदि क्रोध उदय होने के कारण उपस्थित भी हो जाए तो सम्यग् विचार से उन्हें शान्त करना चाहिए। जैसे कि, जो अमुक कष्ट मुझे हो गया है, वह सब मेरे ही कर्मों का दोष है। अतः मुझे सम्यक्तया इसे सहन करना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, कर्ण आदि को प्रिय लगने वाले शब्दादि विषयों पर राग भाव न करने के विषय में कहते हैं: कन्नसुक्खेहिं सद्देहि, पेमं नाभिनिवेसए। दारुणं कक्कसं फासं, काएण अहिआसए॥२६॥ कर्णसौख्येषु शब्देषु, प्रेमं नाभिनिवेशयेत्। दारुणं कर्कशं स्पर्श, कायेन अध्यासीत॥२६॥ पदार्थान्वयः-कन्नसुक्खेहि-श्रोत्रेन्द्रिय को सुख उत्पन्न करने वाले सद्देहि-शब्दों में, साधु पेमं-राग भाव नाभिनिवेसए-स्थापन न करे तथा दारुणं-अनिष्ट और कक्कसं-कर्कश फासं-स्पर्श को काएण-शरीर से अहिआसए-सहन करे। __मूलार्थ-साधु को श्रोत्रेन्द्रिय सुख कारक शब्दों में राग नहीं करना चाहिए तथा अनिष्ट और कर्कश स्पर्श को शरीर द्वारा समभाव से सहन करना चाहिए। टीका-जो शब्द कर्णेन्द्रिय को सुख रूप हैं, उन्हें सुन कर साधु रागभाव न करे और ठीक इसी प्रकार दारुण एवं कर्कश स्पर्श होने पर द्वेष भाव न करे अर्थात् कठिन स्पर्शों को समभाव से ही सहन करे। इस गाथा में प्रथम श्रुतेन्द्रिय और पाँचवीं स्पर्शेन्द्रिय के बतलाने से सिद्ध किया है कि, शेष तीन इन्द्रियाँ इनके ही अर्न्तगत आ जाती हैं। सारांश यह है कि, पाँचों इन्द्रियों के अनुकूल विषयों में राग न करे और प्रतिकूल विषयों पर द्वेष न करे; किन्तु मध्यस्थ भाव पूर्वक उनका अनुभव करे। सूत्र में जो 'कन्नसुक्खेहिं सद्देहिं 'तृतीया विभक्ति दी गई है, वह सप्तमी विभक्ति के अर्थ में दी है। ___ उत्थानिका- अब सूत्रकार, क्षुधा और तृषा आदि दुःखों को समभाव से सहने का उपदेश देते हैं: खुहं पिवासं दुस्सिज, सीउन्हं अरइं भयं। अहिआसे अव्वहिओ, देहदुक्खं महाफलं॥२७॥ क्षुधं पिपासां दुःशय्यां, शीतोष्णमरतिं भयम्। अध्यासीत अव्याथितः, देहदुःखं महाफलम्॥२७॥ अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [325
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy