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________________ रखना चाहिए। अपितु गृहस्थों के सम्बन्ध से कमल के समान सदा निर्लेप होकर चराचर सभी , जीवों का सदा संरक्षण करना चाहिए। क्योंकि, शास्त्रकारों ने साधु की वृत्ति हिंसा के दोष से सर्वथा रहित बतलाई है। अतः साधु को अपना संयमी जीवन सर्वथा शुद्ध, "सावध व्यापार से रहित होकर" बिताना चाहिए। इसी लिए सूत्रकार ने सूत्र में साधु के लिए 'मुधाजीवी' शब्द का प्रयोग किया है। जिसका अर्थ होता है, 'सर्वथा अनिदान जीवी' अर्थात्- गृहस्थ का किसी प्रकार का भी सांसारिक कार्य न करके प्रतिबन्धता रहित भिक्षा वृत्ति द्वारा संयमीय जीवन बिताने वाला। इस शब्द के विषय में विशेष जिज्ञासा रखने वाले सज्जन 'पिण्डैषणाध्ययन' के प्रथमोद्देश की अन्तिम गाथा का भाष्य देखें। हम वहाँ विशेष रूप से वर्णन कर आए हैं। सूत्र का समझने योग्य संक्षिप्त तात्पर्य यह है कि, साधु कमल के समान आशा-जल के लेप से निर्लेप होकर, शत्रु-मित्र, निन्दक-स्तावक आदि सभी पर समान दृष्टि रख कर सब जीवों की रक्षा करे और आगामी काल के लिए स्तोक मात्र भी खाद्य पदार्थों का संग्रह न करे। उत्थानिका- अब, फिर इसी भोजन के विषय में कथन किया जाता है:लूहवित्ति सुसंतुटे, अप्पिच्छे सुहरे सिया। आसुरत्तं न गच्छिज्जा, सुच्चा णं जिणसासणं॥२५॥ रूक्षवृत्तिः सुसन्तुष्टः, अल्पेच्छः सुभरः स्यात्। आसुरत्वं न गच्छेत्, श्रुत्वा जिन शासनम्॥२५॥.. पदार्थान्वयः- साधु लूहवित्ति-रूक्ष वृत्ति वाला सुमंतुढे-सदा सन्तुष्ट रहने वाला अप्पिच्छे-अल्प इच्छा वाला सुहरे-सुख पूर्वक निर्वाह करने वाला सिंया-हो तथा जिणसासणंक्रोधविपाक प्रतिपादक जिन प्रवचनों को सुच्चा-सुनकर आसुरत्तं-क्रोध के प्रति भी नगच्छिज्जान जाए णं-पादपूर्ति में है। मूलार्थ- पूर्ण रूक्ष वृत्ति वाला, रूखा सूखा जो मिले उसी में सन्तुष्ट रहने वाला, अल्प इच्छा वाला एवं सुख पूर्वक जीवन निर्वाह करने वाला साधु, जिन प्रवचनों के अध्ययन और श्रवण से क्रोध के कटुफल को जान कर कभी किसी पर क्रोध भाव न करे। टीका- सच्चा साधु वही है जो सरस भोजनाकांक्षी न होकर सदा रूक्ष वृत्ति वाला है अर्थात् जौ, चने आदि रूक्ष पदार्थों से ही काम चला लेता है तथा जो रूखा सूखा वह भी थोड़ा ही जैसा मिल जाता है, उसी में पूर्ण सन्तुष्ट रहने वाला है और जो अल्पेच्छा वाला है, जिसकी आवश्यकताएँ बहुत ही थोड़ी हैं, जो किसी को भार रूप नहीं पड़ता तथा जो ऊनोदरी तप का धारक होने से थोड़े से आहार से ही पूर्ण तृप्त हो जाता है अर्थात् जो क्षुधा का स्वयं अधीन न होकर क्षुधा को अपने अधीन में रखता है। ऐसा साधु ही वस्तुतः 'स्व पर तारक' पद वाच्य हो सकता है। ऐसे साधु ही में पूर्ण धैर्य होता है। अधिक क्या, पूर्वोक्त गुण वाला साधु कठिन से कठिन दुर्भिक्ष आदि के समय में भी पूर्ण दृढ़ रह कर सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकता है और अधीर होकर संयम से किसी भी अंश में विचलित नहीं हो सकता। पूर्वोक्त गुण विशिष्ट साधु के लिए सूत्रकार ने एक गुण और बताया है जिसके बिना पूर्वोक्त गुणों के होते हुए 324] दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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