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________________ न च भोजने गृद्धः, चरेत् उंच्छमजल्पाकः। __ अप्रासुकं न भुञ्जीत, क्रीतमौदेशिकमाहृतम्॥२३॥ पदार्थान्वयः- साधु भोअणंमि-सरस भोजन में गिद्धो-गृद्ध (लालायित) होकर किसी धन-सम्पन्न गृहस्थ के घर में न चरे-न जाए किन्तु अयं पिरो-व्यर्थ न बोलता हुआ उंछंसभी ज्ञात-अज्ञात कुलों में समान भाव से चरे-जाए य-तथा अफासुअं-अप्रासुक आहार कीयंमोल लिया हुआ आहार उद्देसिअं-साधु का उद्देश रखकर तैयार किया हुआ आहार और आहडंसम्मुख लाया हुआ प्रासुक आहार भी न भुंजिजा-न खाए। - मूलार्थ- साधु को सरस भोजनासक्त होकर अपनी जान पहचान के अच्छेअच्छे धन संपन्न घरों में नहीं जाना चाहिए; किन्तु मौनविधि से ज्ञात और अज्ञात सभी कुलों में समान भाव से जाना.चाहिए तथा वहाँ से भी साधु को औद्देशिक, क्रीतकृत, आहृत तथा अप्रासुक आहार लाकर नहीं भोगना चाहिए। टीका-गोचरी के लिए गृहस्थों के घरों में जाना हो, तो साधु सरस आहार के लोभ से ताक-ताक (देख-देख) कर अच्छे-अच्छे प्रतिष्ठित घरों में न जाए; किन्तु मौन विधि से मार्ग में जो भी ज्ञात, अज्ञात कुल आए, सभी में समान भाव से केवल क्षुधा निवृत्ति योग्य आहार के लिए जाए। परन्तु वहाँ से भी साधु-विधि के अनुसार सम्यक् प्रकार से देख कर, अपने लायक प्रमाण-पूर्वक ही आहार लाए। यदि कभी किसी कारण से अप्रासुक (सचित्त) एवं मिश्रित आहार, औद्देशिक 'साधु को निमित्त रख कर तैयार किया हुआ आहार' क्रीतकृत- 'साधु के वास्ते मोल लिया हुआ आहार' आहृत 'साधु के वास्ते ग्रामान्तर से लाया हुआ आहार' ले भी लिया हो तो खाना नहीं चाहिए। क्योंकि, इस से शिथिलता की वृद्धि होती है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, संनिधि नहीं करने के विषय में कहते हैं:. संनिहिं च न कुव्विज्जा, अणुमायं पि संजए। ___मुहाजीवी असंबद्धे, हविज जगनिस्सिए॥२४॥ संनिधिं च न कुर्यात्, अणुमात्रमपि संयतः। मुधाजीवी असंबद्धः, भवेत् जगनिश्रितः॥२४॥ ..पदार्थान्वयः-संजए-साधु अणुमायंपि-अणुमात्र भी संनिहि-संनिधि न कुग्विजान करे, वह सदा मुहाजीवी-सावध व्यापार से रहित जीवन व्यतीत करने वाला असंबद्धे-गृहस्थों से अनुचित सम्बन्ध न रखने वाला च-और जगनिस्सिए-सब जीवों की रक्षा करने वाला हव्विजहो। मूलार्थ-साधु, स्वल्प मात्र भी अशनादि पदार्थ रात्रि में न रक्खे, सावध व्यापार रहित जीवन व्यतीत करे, गृहस्थों से अयोग्य सम्बन्ध न रक्खे और चर-अचर सभी जीवों की रक्षा करे। टीका- इस गाथा में इस बात का उपदेश किया गया है कि, साधु को स्तोक मात्र भी अशनादि पदार्थों का रात्रि में संग्रह नहीं करना चाहिए और न किसी पदार्थ पर ममत्व भाव अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [323
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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