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________________ तू व्यभिचारी है, तू मूर्ख है इत्यादि। ये बातें यद्यपि सत्य हैं, फिर भी शान्ति भङ्ग करने वाली हैं। ऐसी बात कहने से जीवोपघात हुए बिना कभी नहीं रहता। इसी प्रकार चाहे कोई कैसा ही क्यों न अनुरोध आदि उपाय करे; परन्तु साधु, गृहस्थ के व्यापार का कदापि आचरण न करे। अर्थात्साध प्रेम प्रदर्शन के लिए गहस्थ के बालकों को खिलाने आदि का काम भी कभी न करे। कारण यह है कि, गृहस्थ व्यापार के समाचरण से साधु फिर भाव से गृहस्थ ही हो जाएगा और जो मोक्ष मार्ग का साधक बना हुआ है, उससे पतित हो जाएगा। इसी लिए साधु, गृहस्थ के साथ विशेष परिचय या संस्तव आदि न करे। उत्थानिका- अब सूत्रकार, लाभालाभ के विषय में कुछ नहीं कहने का उपदेश देते हैं:निट्ठाणं रसनिज्जूढं, भद्दगं पावगं त्ति वा। पुट्ठो वावि अपुट्ठो वा, लाभा लाभं न निदिसे // 22 // निष्ठानं रसनियूँढं, भद्रकं पापकमिति वा। .. पृष्टो वाऽपि अपृष्टो वा, लाभालाभौ न निर्दिशेत्॥२२॥ पदार्थान्वयः- साधु पुट्ठो-पूछने पर वावि-अथवा अपुट्ठो-नहीं पूछने पर निट्ठाणंसर्वगुणों से युक्त आहार को भद्दगं-यह भद्र है वा-अथवा रस-निज्जूढं-रस रहित आहार को पावगंत्ति-यह पापक (बुरा) है ऐसा तथा लाभालाभं-आज सुंदर आहार का लाभ हुआ है वाअथवा आज लाभ नहीं हुआ है त्ति-इस प्रकार कदापि न निहिसे-निर्देश न करे। मूलार्थ-चाहे कोई पूछे या कोई न पूछे, साधु को कभी भी सरस आहार को सरस और नीरस आहार को नीरस नहीं कहना चाहिए।तथैव लाभालाभ के विषय में भी कुछ नहीं कहना चाहिए। टीका- इस गाथा में मध्यस्थ भाव का वर्णन किया गया है। जैसे कि, जो आहार सब गुणों से संयुक्त है या सब गुणों से विवर्जित है, उनके विषय में साधु किसी के पूछने पर या न पूछने पर यह अच्छा है या बुरा है इत्यादि गुण दोषों का वर्णन न करे। तथैवं आज हमें सुन्दर आहार का लाभ हुआ ही नहीं, आज तो हमें परम मनोहर आहार प्राप्त हुआ है। इस प्रकार भी साधु, जनता के सम्मुख वर्णन न करे। कारण यह है कि, ऐसा कहने से साधु की अधीरता प्रकट होती है और संयम का उपघात होता है तथा श्रोताओं के मन में नाना प्रकार के शुभ, अशुभ संकल्प उत्पन्न होने लग जाते हैं, जिससे फिर 'आरम्भ-समारम्भ' आदि के उत्पन्न हो जाने की भी संभावना की जा सकती है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, अप्रासुक क्रीतकृत आदि पदार्थों के न ग्रहण करने का उपदेश देते हैं: न य भोअणंमि गिद्धो, चरे उंछं अयंपिरो। अफासुअंन |जिज्जा, कीयमुद्देसिआहडं // 23 // . 322] दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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