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________________ - पदार्थान्वयः-भिक्खू-भिक्षु कन्नेहि-कानों से बहुं-बहुत से शब्द सुणेहि-सुनता है, उसी प्रकार अच्छीहिं-आँखों से बहुं-बहुत से रूप पिच्छइ-देखता है। किन्तु दिढें-देखा हुआ रूप य-तथा सुयं-सुना हुआ शब्द सव्वं-सर्व प्रकार अक्खाउं-प्रकट करने के लिए न अरिहइ-योग्य नहीं है। मूलार्थ-गृहस्थों के घरों में गया हुआ साधु, कानों से अच्छे-बुरे सभी प्रकार के शब्द सुनता है और इसी प्रकार आँखों से भी अच्छे-बुरे सभी प्रकार के रूप देखता है। किन्तु, जो कुछ देखे और सुने वह सभी प्रकार से लोगों के समक्ष प्रकट करने के योग्य नहीं है। टीका- इस गाथा में पूछने पर उत्तर तथा उपदेशाधिकार में शिक्षा प्रदान करते हैं। यथा- जब साधु, गोचरी आदि के वास्ते घरों में जाता है, तब वह अनेक प्रकार के शोभन या अशोभन शब्दों को सुनता है; ठीक उसी प्रकार अनेक प्रकार के शोभन या अशोभन रूपों को देखता है। किन्तु, साधु को अपने या पर के तथा दोनों के हित के लिए वे शब्द या इष्ट बातें सर्वत्र सभी प्रकार से लोगो के समक्ष कहने योग्य नहीं हैं। जैसे कि-'अमुक घर में लड़ाई हो रही है, आज अमुक स्त्री रो रही है तथा अमुक स्त्री सुरूपा है या कुरूपा है इत्यादि।' प्रकट न करने का यह कारण है कि, लोगों के सामने इस प्रकार किसी के घर की बात कहने से अपने चारित्र का उपघात होता है तथा लोगों में अप्रीति होती है। यदि जिसके प्रकट करने से अपना और दूसरों का हित होता है तो ऐसे वृतान्त को साधु आनन्द से प्रकट कर सकता है। जैसे अमुक व्यक्ति ने न्याय पूर्वक शान्ति स्थापित कर दी और बढ़ते हुए क्लेश को मिटा दिया। . उत्थानिका- अब फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हैं: सुअंवा जइ वा दिटुं, न लविज्जोवघाइ। न य केण उवाएण, गिहिजोगं समायरे॥२१॥ श्रुतं वा यदि वा दृष्टं, न लपेत् औपघातिकम्। न च केनचित् उपायेन, गृहियोगं समाचरेत्॥२१॥ पदार्थान्वयः-ऊवघाइअं-उपघात से उत्पन्न हुई वा उपघात को उत्पन्न करने वाली बात सुअं वा-सुनी हो जइवा-अथवा दिटुं-देखी हो तो न लविज्ज-साधु न कहे य-और इसी प्रकार केण उवाएण-किसी उपाय से भी गिहिजोगं-गृहस्थ के साथ सम्बन्ध वा गृहस्थ के व्यापार न समायरे-समाचरण न करे। मूलार्थ-किसी से सनी हुई तथा स्वयं देखी हुई, कोई भी औपघातिक बात साधु को किसी के आगे नहीं कहनी चाहिए और ना ही साधु को किसी अनुरोध आदि उपायों से गृहस्थ के व्यापार का आचरण करना चाहिए। ___टीका-यदि कभी साधु, उपघात से उत्पन्न हुई तथा उपघात करने वाली बात किसी से सुने या स्वयं देखे, तो साधु को वह बात किसी के आगे नहीं कहनी चाहिए। जैसे तू चोर है, अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [321
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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