________________ स्थंडिल भूमि को भली भाँति देख कर, फिर उसमें मल, मूत्र, मुख का मल अर्थात्- कफ, नाक / का मल तथा अन्य शरीर के मल जो त्यागने योग्य हैं, उन्हें यत्ना पूर्वक त्यागे। सूत्रकार के कथन का यह भाव है कि, साधु को मल आदि अशुचि पदार्थ इस प्रकार एकान्त प्रासुक स्थान में गिराने चाहिए जिससे प्रथम तो स्थानस्थ पूर्वोक्त स्नेह सूक्ष्म आदि जीवों का विनाश न हो। दूसरे, गिराए / हुए पदार्थ में जीवोत्पत्ति संभव न हो। तीसरे, अन्य दर्शक लोगों के हृदय में घृणा उत्पन्न न हो। चौथे, गिराए हुए पदार्थ रोगोत्पत्ति के कारण न हों। ___ उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'गोचरी के लिए गृहस्थों के घरों में गए हुए साधु को किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए ?' यह कहते हैं: पविसित्तु परागारं, पाणट्ठा भोअणस्स वा। जयं चिट्ठे मिअंभासे, न य रूवेसु मणं करे॥१९॥ प्रविश्य परागारं, पानार्थं भोजनाय वा। यतं तिष्ठेत् मितं भाषेत, न च रूपेषु मनः कुर्यात्॥१९॥ __ पदार्थान्वयः-पाणट्ठा-पानी के लिए वा-अथवा भोअणस्स-भोजन के लिए परागारंगृहस्थ के घर में पविसित्तु-प्रवेश कर साधु जयं-यत्न से चिढ़े-खड़ा रहे। मिअं-प्रणाम पूर्वक भासे-भाषण कर य-तथा रूवे-गृहस्थ की स्त्री के रूप में मणं-अपने मन को न करे-न लगाए। मूलार्थ-आहार पानी के लिए गृहस्थ के घर में गया हुआ साधु, यथोचित स्थान पर खड़ा होकर, विचार पूर्वक हित मित भाषण करे तथा स्त्री आदि के रूप को देख कर मन को डांवा डोल (चलायमान) भी न करे। . टीका-जब साधु, आहार आदि के लिए गृहस्थ के घर में जाए, तो वहाँ उसे यत्ना पूर्वक खड़ा होना चाहिए तथा प्रमाण पूर्वक और सभ्यतानुसार भाषण करना चाहिए। इतना ही नहीं, किन्तु घर में जो गृहस्थ की स्त्री आदि जन हों, उनके रूप सौन्दर्य पर अपना मन कदापि न डिगाए अर्थात् विचलित करे। कारण यह है कि, ऐसा करने पर नाना प्रकार की शंकाएँ तथा संयम और ब्रह्मचर्य व्रत को आघात पहुँचने की संभावना की जा सकती है। जिस प्रकार रूप का ग्रहण है उसी प्रकार भोज्य पदार्थों के रस आदि के विषय में भी जान लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि, साधु, ग्लान आदि की औषधि के लिए भी यदि गृहस्थ के घर में जाए, तो वहाँ गवाक्ष आदि को न देखता हुआ, एकान्त स्थान पर खड़ा न हो कर, आगमन प्रयोजन आदि सब बात विचार पूर्वक थोड़े शब्दों में ही कहे तथा स्त्री आदि के रूप पर स्वचित्त को विकृतं न करे। उत्थानिका- अब सत्रकार. 'गहस्थ के यहाँ दृष्ट तथा श्रत बातों को प्रकट नहीं करना चाहिए यह कहते हैं' अथवा उपदेशाधिकार में सामान्य प्रकार से उपदेश का वर्णन करते हैं: बहुं सुणेहिं कनेहिं, बहुं अच्छीहिं पिच्छइ। नय दिलु सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ // 20 // बहु शृणोति कर्णाभ्यां, बहु अक्षिभ्यां पश्यति। न च दृष्टं श्रुतं सर्वं, भिक्षुराख्यातुमर्हति // 20 // 320] दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्