________________ * उत्थानिका- अब सूत्रकार, प्रतिलेखना के विषय में उपदेश देते है: धुंवं च पुड़िलेहिज्जा, जोगसा पायकंबलं। सिजमुच्चारभूमिं च, संथारं अदुवासणं // 17 // ध्रुवं च प्रतिलेखयेत् , योगेन पात्रकम्बलम्। शय्यामुच्चारभूमिं च, संस्तारमथवाऽऽसनम्॥१७॥ - पदार्थान्वयः- साधु धुवं-नित्य ही जोगसा-शक्ति पूर्वक पायकंबलं-पात्र और वस्त्र की तथा सिज्जं-शय्या की च-तथा उच्चारभूमि-उच्चार भूमि की संथारं च -संस्तारक की अदुवऔर आसणं-आसन की पडिलेहिजा-प्रतिलेखना करे। ___ मूलार्थ-साधु को नित्य प्रति यथा काल वस्त्र, पात्र , उपाश्रय, स्थंडिल भूमि, संस्तारक और आसन आदि की शक्ति पूर्वक प्रतिलेखना करनी चाहिए। टीका-इस गाथा में अप्रमत्त भाव का दिग्दर्शन कराया गया है। यथा-जिस पदार्थ का जो प्रति लेखन काल सूत्रों में प्रतिपादन किया गया है, साधु उस पदार्थ की उसी काल सूत्रानुसार यथाशक्ति प्रतिलेखना करे। प्रतिलेखना शब्द का अर्थ सम्यक्तया देखना है। उपलक्षण से प्रमार्जना आदि का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। कारण कि, जिन पदार्थों की सम्यक्तया प्रतिलेखना वा प्रमार्जना की जाती है, फिर उन में जीवोत्पत्ति बहुत स्वल्प होती है। निम्नलिखित सूर्वोक्त पदार्थ तो अवश्य ही प्रतिलेखनीय हैं। यथा- काष्ठ आदि के पात्र, ऊर्ण आदि के कम्बल, वसति-उपाश्रय, स्थंडिल-उच्चार भूमि, तृण संस्तारक तथा पीठ फलक आदि आसन। क्योंकि, इन के पुनः पुनः देखने से जीव रक्षा की उत्कटता बढ़ती है, आलस्य का परित्याग होता . है और संयम की पुष्टि होती है। उत्थानिका- अब, फिर इसी विषय को स्पष्ट किया जाता है:उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाण जल्लिअं। फासु पडिलेहित्ता, परिठ्ठाविज संजए॥१८॥ उच्चारं प्रस्रवणं, श्लेष्म सिङ्घाण जल्लिकम्। प्रासुकं प्रतिलेख्य, परिष्ठपायेत् संयतः॥१८॥ पदार्थान्वयः-संजए-साधु फासुअं-प्रथम प्रासुक स्थंडिल भूमि की पडिलेहित्ताप्रतिलेखना करके फिर उस में उच्चारि-पुरीष पासवणं-मूत्र खेलं-कफ सिंघाण-नाक का मल जल्लिअं-और प्रस्वेद आदि अशुचि पदार्थ परिठ्ठाविज्ज-पलटे या गिराए। मूलार्थ-साधु को मल-मूत्र, कफ, नासिका-मल, प्रस्वेद आदि अशुचि पदार्थ किसी प्रासुक स्थान में प्रथम प्रतिलेखना करके ही त्यागने चाहिए। टीका-इस गाथा में अपवित्र पदार्थों के त्यागने का विधान किया गया है। यथा-जो भूमि मलादि पदार्थों के पलटने के लिए हो, वह प्रासुक होनी चाहिए। अतः साधु उस प्रासुक हिन्दीभाषाटीकासहितम् / अष्टमाध्ययनम् ] [ 319