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________________ करक-ओले इत्यादि सूक्ष्म जल को 'स्नेह सूक्ष्म' कहते हैं। द्वितीय, पुष्प सूक्ष्म- बड़ और उंवर आदि के . सूक्ष्म पुष्प, जो तद्वर्ण रूप होने से तथा अत्यन्त सूक्ष्म होने से सम्यक्तया सहसा दृष्टि गोचर नहीं होते। तृतीय, प्राणी सूक्ष्म- कुंथुवा आदि जीव, जो चलते हुए तो देखने पर सूक्ष्म दृष्टि से देखे जा सकते हैं,किंतु यदि वे स्थिर हों तो सूक्ष्म होने से नहीं देखे जा सकते। चतुर्थ, उत्तिंग सूक्ष्म- कीड़ी नगर को अर्थात् कीड़ियों के बिल को उत्तिंग सूक्ष्म' कहते हैं। क्योंकि, कीड़ी नगर में सूक्ष्म कीड़ियाँ अथवा अन्य बहुत से सूक्ष्म जीव होते हैं। पंचम, पनक सूक्ष्म- प्रायः प्रावृटकाल (चौमासे) में भूमि और काष्ठ आदि में पाँच वर्णवाली तद्रूप लीलन फूलन हो जाया करती है। षष्ठ, बीज सूक्ष्म- शाली आदि बीज का मुख मूल, जिससे अंकुर उत्पन्न होता है तथा जिसको लोक में तुषमुख' कहते हैं। सप्तम, हरित सूक्ष्म- नवीन उत्पन्न हुई हरित काय, जो पृथ्वी के समान वर्ण वाली होती है, उसे 'हरित सूक्ष्म' कहते हैं। अष्टम, अण्ड सूक्ष्म- मक्षिका, कीटिका (कीड़ी) गृह कोकिला (छिपकली) कृकलास (गिरगट) आदि के सूक्ष्म अंडे, जो स्पष्टत: नहीं देखे जाते। ये उपर्युक्त आठ प्रकार के सूक्ष्म हैं। इनका ज्ञान होने पर ही इनके प्रत्याख्यान करने का प्रयत्न किया जाता है। उत्थानिका- अब आचार्य जी, इन आठ सूक्ष्मों की यत्ना करने का उपदेश देते हैं:एवमेआणिजाणित्ता,सव्वभावेणसंजए। अप्पमत्तोजए निच्चं,सव्विंदिअसमाहिए // 16 // : एवमेतानि ज्ञात्वा,सर्वभावेन संयतः। अप्रमत्तो यतेत नित्यं,सर्वेन्द्रियसमाहितः // 16 // पदार्थान्वयः- सब्बिंदिअसमाहिए-समस्त इन्द्रियों के विषय मेंराग द्वेष न करनेवाला अप्पमत्तोअप्रमत्त संजए-साधुएवं इसी प्रकारएआणि-पूर्वोक्तआठप्रकारकेसूक्ष्मों को जाणित्ता-जानकर सव्वभावेणसर्व भाव से निच्चं-सदैव काल इनकी जाए-यत्ना करे।। मूलार्थ-सभी इन्द्रियों के अनुकूल और प्रतिकूल विषयों पर समभाव रखने वाला साधु, इस प्रकारपूर्वोक्तआठ प्रकारके सूक्ष्म जीवों को सम्यक्तया जानकर, सदा अप्रमत्त रहता हुआ सर्वभाव से इनकी यत्ना करे। ___टीका- जिस साधु ने शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में मध्यस्थ भाव का अवलम्बन कर लिया है और साथ ही विषय कषाय आदि प्रमाद भी छोड़ दिया है, उस को योग्य है कि वह मन, वचन और काय से सदैवकाल पूर्वोक्त आठ प्रकार के सूक्ष्मों को भली भाँति जानकर उनकी यत्ना करे। कारण कि, यत्ना वही कर सकता है जिसने पाँचों इन्द्रियों के अर्थों में समता भाव किया हुआ है तथा जिसने प्रमाद छोड़ दिए हैं और जो सर्व भाव से अर्थात् यथाशक्ति रूप से सब जीवों की रक्षा में प्रयत्न शील है; वही मुनि . वास्तव में दया का अधिकारी हो सकता है। साधु, जब दया का अधिकारी हो गया तो फिर सत्य आदि का अधिकारी अपने आप हो जाता है। 318] दशवैकालिकसूत्रम् [अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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