SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुद्गलों को ताल वृक्ष के पंखे से, कमल आदि के पत्तों से, वृक्ष की शाखा से तथा अन्य किसी सामान्य पंखे से हवा न करे। टीका-तेजकाय की विधि के कथन के पश्चात् अब सूत्रकार, वायुकाय की रक्षा के विषय में कहते हैं। बुद्धिमान् साधु गर्मी के कारण अपने शरीर के लिए तथा उष्ण आदि पदार्थों को ठण्डा करने के लिए ताल वृक्ष के पंखों से, कमल के पत्तों से, वृक्ष की शाखाओं से तथा मोर पंखों आदि के सामान्य पंखों से हवा न करे। कारण यह है कि, पंखों की वायु अचित्त होने पर भी अन्य वायु की विराधना का कारण बन जाती है। अतः साधु को पंखे से कभी हवा नहीं करनी चाहिए। वायुकाय की यत्ना कुछ हवा नहीं करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि साधु को अपने प्रत्येक काम में वायुकाय की यत्ना करनी चाहिए। उठना, बैठना, वस्त्र झाड़ना इत्यादि सब कुछ यत्ना पूर्वक ही होना चाहिए। अयत्ना द्वारा प्रस्फोट आदि से वायु जीव-विघातक क्रियाएँ नहीं करनी चाहिए। उत्थानिका- अब, वनस्पतिकाय की यत्ना के विषय में कहा जाता है:तणरुक्खं न छिंदिज्जा, फलं मूलं च कस्सइ। आमगं विविहं बीअं, मणसावि ण पत्थए॥१०॥ तृणवृक्षं न छिन्द्यात्, फलं मूलं च कस्यचित्। आमकं विविधं बीजं, मनसापि न प्रार्थयेत्॥१०॥ पदार्थान्वयः- यत्नावान् साधु तणरुक्खं-तृण और वृक्षों को न छिंदिज्जा-छेदन न करे तथैव कस्सइ-किसी वृक्ष के फलं-फल च-तथा मूलं-मूल को भी छेदन न करे। यही नहीं, विविहं-नाना प्रकार के आमगं-सचित्त बीअं-बीजों की मणसावि-मन से भी न पत्थए-प्रार्थना अभिलाषा न करे। __ मूलार्थ-साधुन तो कभी तृण, वृक्ष तथा वृक्षों के फल या मूल का छेदन करे और न नानाविध सचित्त बीजों का सेवन करे। सेवन करना तो दूर रहा, सेवन करने का विचार तक मन में न लाए। टीका-वायुकाय के पश्चात् अब, वनस्पति के विषय में कहते हैं। यावन्मात्र तृण, वक्ष तथा वक्षों के जो फल या मल हैं: साध उनका कदापि छेदन न करे तथा जितने आमक (सचित्त बीज) हैं, उनके आसेवन करने की मन से भी प्रार्थना न करे। कारण यह है कि इससे वनस्पति जीवों की विराधना होने से स्वीकृत संयम दूषित हो जाता है। साधु वनस्पति जैसे सूक्ष्म प्राणियों की रक्षा के लिए ही साधु वेष धारण करता है; अतः वह स्वीकृत व्रत की प्राण-पण से रक्षा करता हुआ सदा सन्तोष वृत्ति से अपना निर्वाह करे। उत्थानिका- अब, फिर वनस्पति की ही यत्ना के विषय में कहते हैं:गहणेसु न चिट्ठिजा, बीएसु हरिएसु वा। उदगंमि तहा निच्चं, उत्तिंगपणगेसु वा॥११॥ ... 314] दशवकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy