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________________ ही नहीं, किन्तु तथा भूत (उस तरह) कच्चे जल से तर हुए शरीर को देखकर अणुमात्र भी स्पर्श न करे। कारण कि, स्पर्शादि के द्वारा अप्काय की विराधना होती है। अतएव जब तक वह स्वयमेव शुष्क न हो जाए (सुख न जाए) तब तक अन्य क्रियाएँ कदापि न करे। उत्थानिका- अब सूत्रकार, अग्निकाय की यत्ना के विषय में उपदेश देते हैं:इंगालं अगणिं अच्चिं, अलायं वा स जोइ। न उंजिज्जा न घटिज्जा, नो णं निव्वावए मुणी॥८॥ अङ्गारमग्निमर्चिः , अलातं वा सज्योतिः। नोत्सिञ्चेत् न घटयेत् , नैनं निर्वापयेत् मुनिः॥८॥ पदार्थान्वयः- मुणी-मुनि इंगालं-अंगारों की अग्नि को अगणिं-लोह-पिण्डगत अग्नि को अच्चि-त्रुटित ज्वाला की अग्नि को वा-अथवा सजोइअं-अग्नि सहित अलायं-काष्ठ आदि को न उंजिज्जा-उत्सेचन न करे न घट्टिजा-परस्पर संघर्षण न करे तथैव णं- इस अग्नि को नो निव्वावए-बुझाए भी नहीं। मूलार्थ-मनन शील मुनि अंगारे की, लोह पिण्ड की, टूटी हुई ज्वाला की, सुलगते हुए काष्ठ आदि की अग्नि को तिनके आदि डालकर न धौंके, न परस्पर संघट्टन करे और न जल आदि डालकर ही बुझाए। टीका- बुद्धिमान् साधु को योग्य है कि, वह अनिकाय के जीवों की रक्षा करता हुआ निम्न प्रकार की चेष्टाएँ (क्रियाएँ) कदापि न करे। यथा- अङ्गार-ज्वाला रहित अग्नि लोह पिण्ड के भीतर व्याप्त हुई, जिसकी ज्वाला टूटी हुई हो, वह अग्नि, अलात 'काष्ठ के अग्रभाग पर लगी हुई' अग्नि, इत्यादि नानाविध रूप वाली अग्नि को किसी प्रकार के ईन्धन आदि से न धौंके, परस्पर संघर्षण न करें तथा जल आदि से भी नहीं बुझाए। क्योंकि ये अग्नि सम्बन्धी सभी क्रियाएँ सारम्भक होने से मुनि के लिए सर्वथा त्याज्य है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, वायुकाय की यत्ना का उपदेश करते हैं:तालिअंटेण पत्तेण, साहाए विहुणेण वा। नवीइज्ज अप्पणो कायं, बाहिरं वावि पुग्गलं॥९॥ तालवृन्तेन पत्रेण, शाखया विधूननेन वा। न वीजयेत् आत्मनः कायं, बाह्यं वाऽपि पुद्गलम्॥९॥ पदार्थान्वयः- अप्पणो-अपने कार्य-शरीर को वा-अथवा बाहिरं-शरीर बाह्य पुग्गलंवि-उष्ण दुग्ध आदि पदार्थों को तालिअंटेण-ताल वृक्ष के पंखे से पत्तेण-पत्ते से साहाएवृक्ष की शाखा से वा-अथवा विहुणेण-सामान्य पंखे से न वीइज्ज-हवा न करे। मूलार्थ-मोक्ष मार्ग साधक साधु, अपने शरीर को तथा शरीर से अतिरिक्त अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [313
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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