________________ या गौतम स्वामी की ओर ही सूत्रकार का संकेत प्रतीत होता है तथा टीका 'महर्षिणा-वर्द्धमानेन / गौतमेन वा इति।' उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'षट्काय-जीवों के विषय में किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए' यह कहते हैं: तेसिं अच्छणजोएण, निच्चं होयव्वयं सिआ। मणसा कायवक्केण, एवं हवइ संजए॥३॥ तेषामक्षणयोगेन , नित्यं भवितव्यं स्यात्। मनसा कायेन वाक्येन, एवं भवति संयतः॥३॥ . पदार्थान्वयः-महाव्रतधारी मुनि को मणसा-मन से वक्कण-वचन से काय-काय से तेसिं-पूर्वोक्त छ: काय के जीवों के साथ निच्चं-नित्य अच्छणजोएण-अहिंसक व्यापार से ही होयव्वयं-वर्तना उचित है। कारण कि एवं-इस प्रकार वर्तने से ही संजए-संयत यत्नावान् साधु हो सकता है। मूलार्थ-साधु को मन, वचन और शरीर के योग से पूर्वोक्त जीवों के साथ सर्वदा अहिंसामय प्रवृत्ति से ही वर्तना चाहिए क्योंकि, ऐसा करने से ही साधु ,सच्चा संयत अर्थात् यत्नावान् हो सकता है। टीका-दया-पालक साधुओं को, जो पूर्वोक्त षट्काय के जीव प्रतिपादित किए हैं, उनके साथ सदैव अहिंसक वर्ताव (व्यवहार) रखना चाहिए। अर्थात् जिस प्रकार पीड़ा न : पहुँचे, उसी प्रकार उनके साथ व्यवहार रखना चाहिए। क्योंकि सब जीवों के साथ अहिंसामय व्यवहार रखने से ही साधु को संयत कहा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि, साधु का नाम जो संयत है, वह षट्काय के जीवों की यत्ना करने से ही है, अन्य कारण से नहीं। इसलिए अपने 'संयत' नाम की मर्यादा की रक्षा के लिए साधु , जीवन पर्यंत केवल अहिंसामय प्रवृत्ति ही रक्खे / उत्थानिका- अब सूत्रकार, सामान्य प्रकार से जीव रक्षा का उपदेश देकर विशेष प्रकार से जीव रक्षा का वर्णन करते हुए, प्रथम पृथ्वीकाय की रक्षा के विषय में कहते हैं: पुढविं भित्तिं सिलं लेखें, नेव भिंदे न संलिहे। तिविहेण करणजोएण , संजए सुसमाहिए॥४॥ पृथिवीं भित्तिं शिला लेष्टुं, नैव भिन्द्यात् न संलिखेत्। त्रिविधेन करणयोगेन, संयतः सुसमाहितः॥४॥ पदार्थान्वयः-सुसमाहिए-शुद्ध भाव वाला संजए-साधु तिविहेण करणजोएणतीन करण और तीन योग से पुढविं-शुद्ध पृथ्वी को भित्तिं-भित्ति को सिलं-शिला को लेखेंपत्थर आदि के टुकड़े को नेव भिंदे-न स्वयं भेदन करे और नसंलिहे-ना ही संलेखन करे। मूलार्थ-शुद्ध समाधि वाला साधु , तीन करण और तीन योग से शुद्ध पृथ्वी दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम् 310]