________________ का, भीत का, शिला का तथा पत्थर आदि के खण्ड आदि का भेदन (फोड़ना) और संघर्षण.(घिसना) आदि न करे। - टीका- पूर्व गाथा में सामान्य प्रकार से अहिंसक भाव दिखलाया गया था; किन्तु अब गाथा में विस्तार पूर्वक अहिंसक भाव दिखलाया जाता है। जैसे कि, जो साधु शुद्ध भावों से युक्त है और सदैव काल समाधि मार्ग में उद्यत रहता है; उसको योग्य है कि वह खान आदि की शुद्ध मिट्ठी, नदी के तट की मिट्टी, पत्थर की शिला तथा सचित्त पत्थर आदि का खंड इत्यादि सभी प्रकार की सचित्त पृथ्वी का भेदन न करे और ना ही उन पर रेखा आदि निकाले तथा इनका परस्पर संघर्षण भी न करे। यह उपर्युक्त नियम केवल स्वयं नहीं करने तक ही सीमित नहीं है। किन्तु इसकी सीमा तीन करण और तीन योग तक है। अर्थात्-स्पष्ट भाव यह है कि यह भेदन और संघषर्ण आदि कार्य करना-कराना और अनुमोदना तथा मन, वचन और काय द्वारा कदापि न करे। उत्थानिका- अब सूत्रकार, साधु को पृथ्वी पर किस प्रकार बैठना चाहिए यह कहते हैं: सुद्धपुढवीं न निसीए, ससरक्खंमि अ आसणे। पमजित्तु निसीइज्जा, जाइत्ता जस्स उग्गहं॥५॥ शुद्धपृथिव्यां न निषीदेत्, सरजस्के वा आसने। प्रमृज्य तु निषीदेत् , याचित्वा यस्यावग्रहम्॥५॥ __ पदार्थान्वयः-सुद्धपुढवीं-शुद्ध पृथ्वी पर ससरक्खंमि-सचित्त रजसे भरे हुए आसणेआसन पर न निसीए-न बैठे, यदि अचित्त भूमि हो तो जस्स-जिस की भूमि हो उस से उग्गहअवग्रह आज्ञा जाइत्ता-माँग कर अ-तथा पमज्जितु-प्रमार्जन कर निसीइजा-बैठ जाए। . मूलार्थ-साधु को सचित्त पृथ्वी पर तथा सचित्त रज से भरे हुए आसन पर, उठना-बैठना नहीं चाहिए। यदि भूमि अचित्त हो, तो जिस की भूमि हो, उससे आज्ञा लेकर और भूमि को सावधानी से साफ कर बैठना चाहिए। .. टीका-जो पृथ्वी केवल शुद्ध है, जिस को किसी प्रकार के भी शस्त्र का स्पर्श नहीं हुआ है, जो आसन सचित्त रज से भरा हुआ है, इसी प्रकार अन्य स्थान भी जहाँ पर सचित्त पृथ्वी की आशङ्का हो, उन स्थानों पर साधु न बैठे। यदि भूमि अचित्त प्रतीत हो, तो वह भूमि जिसकी हो पहले उसकी आज्ञा ले, जब आज्ञा मिल जाए, तब उस स्थान का रजोहरण द्वारा अच्छी तरह प्रमार्जन करे और फिर यत्ना पूर्वक वहाँ बैठे। सूत्र में जो 'निषीदन' शब्द आया है, उस से सोना, भोजन करना, परिष्ठापन करना आदि सभी क्रियाओं का ग्रहण किया जाता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, सचित्त जल की यत्ना के विषय में कहते हैं:सीओदगं न सेविजा, सिलावुटुं हिमाणि अ। उसिणोदगं तत्तफासुअं, पड़िगाहिज्ज संजए॥६॥ अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [311