________________ करते हैं, उसी प्रकार उस से भी बढ़ कर साधु को भी अपने अद्वितीय भाव-कोष की रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि, जिस प्रकार द्रव्य कोष के बिना राजा वा गृहस्थ तथा शब्द-कोष के बिना विद्वान् शोभा नहीं पाता, ठीक उसी प्रकार ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप भाव-कोष के बिना साधु भी शोभा नहीं पा सकता। अतएव सूत्रकार , साधु-क्रिया-काण्ड-प्ररूपक दशवैकालिक सूत्र के इस अष्टम अध्ययन में भाव-निधि का वर्णन करते हैं। इसी लिए इस अध्ययन का नाम आचार प्रणिधि' रक्खा गया है। प्रारम्भ में सावधान करने के लिए श्री भगवान् तथा गणधर देवादि कहते है कि, हे शिष्यो ! जिस भिक्षु ने आचार रूप निधि को प्राप्त कर लिया है, उसे अपने क्रिया काण्ड में किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए; उस प्रकरण को मैं तुम्हारे प्रति कहता हूँ। अतः तुम मुझ से इसे क्रमानुसार श्रवण करो। कारण यह है कि, मति अवधि (से लेकर) मन पर्यन्त साधारण ज्ञान भी स्थापन करने योग्य है, किन्तु स्व और पर का उपकार करने वाला केवल श्रुत ज्ञान ही है। इसी लिए श्रुत ज्ञान की प्रधानता है, अतः यहाँ पर श्रुत ज्ञान का ही अधिकार है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'आचार रूप प्रणिधि' जीवों की रक्षा से होती है और जीव कितने प्रकार के हैं ? प्रथम यह कहते हैं :पुढविदगअगणिमारुअ, तणरूक्खस्स बीयगा। तस्सा अपाणा जीवत्ति , इइ वुत्तं महेसिणा॥२॥ पृथिव्युदकाग्निमारुताः , तृणवृक्षसबीजकाः / वसाश्च प्राणिनो जीवा इति, इत्युक्तं महर्षिणा॥२॥ .. पदार्थान्वयः-पुढवि-पृथ्वीकाय दग-अप्काय अगणि-अनिकाय मारुअ-वायुकाय : ‘तथा तणरुक्खस्स बीयगा-तृण, वृक्ष और बीज रूप वनस्पतिकाय अ-तथा तस्सा पाणा-त्रस प्राणी ये सब जीवत्ति-जीव हैं इइ-इस प्रकार महेसिणा-महर्षि ने वुत्तं-कथन किया है। - मूलार्थ-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और तृण वृक्ष बीज आदि रूप वनस्पति * तथा नाना प्रकार के द्वीन्द्रियादि त्रस प्राणी, ये सभी चेतना धर्म वाले जीव हैं, ऐसा पूर्व महर्षि गौतम या महावीर ने प्रतिपादन किया है। टीका- इस गाथा में सर्व प्रथम षट्काय के जीवों का अस्तित्व सिद्ध किया है। यथा-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजकाय, वायुकाय तथा वनस्पतिकाय ये पाँच स्थावरकाय हैं और द्वीन्द्रिय आदि सब जीव त्रसकाय हैं। अतः ये त्रस और स्थावर सभी जीव हैं, ऐसा महर्षि ने कथन किया है। अर्थात् महर्षि ने यह प्रतिपादन किया है कि, समस्त संसारी जीव षट्काय में ही निवास करते हैं। इन षट्काय के जीवों का प्रथम अस्तित्व सिद्ध करने का और नामोल्लेख करने का प्रयोजन यह है कि. निर्ग्रन्थ साधओं का साधत्व (सदाचार) निष्कलङ दया पर ही अवलम्बित है और दया का सम्बन्ध जीवों से है, बिना जीवों के जीव-दया कैसी, बिना जड़ के वृक्ष कैसा या बिना नींव के मकान कैसा? षट्कायिक जीवों की अनुमान आदि से अस्तित्व सिद्धि चतुर्थ अध्ययन में कर आए हैं, अतः वहाँ का स्थल जिज्ञासुओं को अवश्य द्रष्टव्य है। यहाँ यह अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि, सूत्रोक्त 'महर्षि' शब्द से श्री भगवान् महावीर स्वामी अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [309