________________ अह आयार-प्पणिहि णाम अट्टमज्झयणं अथ 'आचार प्रणिधि' नामकमष्ठमाध्ययनम् उत्थानिका-सातवें अध्ययन में जो वचन-शुद्धि विषयक वर्णन किया गया है। वह वचन-शुद्धि उसी की हो सकती है, जो अपने आचार में स्थित होता है। इस लिए साधु को आचार पालन के लिए विशेष प्रयत्न करना चाहिए। आठवें अध्ययन के साथ सातवें अध्ययन का यही सम्बन्ध है, क्योंकि सूत्रकार ने आठवें अध्ययन में आचार विषयक वर्णन किया है, जिस का आदिम प्रतिज्ञा सूत्र यह है: आयारप्पणिहिं लद्धं, जहाकायव्व भिक्खुणा। तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुव्विं सुणेह मे॥१॥ आचार प्रणिधिं लब्ध्वा, यथा कर्त्तव्यं भिक्षुणा। तद्भवद्भ्यउदाहरिष्यामि, आनुपूर्व्या शृणुत मम॥१॥ पदार्थान्वयः-आयारप्पणिहिं-आचार रूप उत्कृष्ट निधि को लर्बु-पाकर भिक्खुणासाधु को जहा-जिस प्रकार कायव्व-अपना क्रिया काण्ड करना चाहिए तं-उस प्रकार भे-तुम्हारे प्रति उदाहरिस्सामि-मैं कहूँगा अतः तुम आणुपुट्विं-अनुक्रम से मे-मुझ से सुणेह-श्रवण करो। मूलार्थ- आचार रूप अनुपम निधि प्राप्त कर, साधु को किस प्रकार अपना क्रिया कलाप करना चाहिए, यह मैं तुमसे कहता हूँ। उसे तुम सावधान होकर यथा क्रम मुझ से सुनो। टीका-निधि, कोष या खजाना एक ऐसी चीज़ है जिस के बिना मनुष्य का काम नहीं चल सकता। किसी न किसी रूप में मनुष्य निधि रखता ही है और निधिपति बनने का प्रयत्न करता है। निधि के दो भेद हैं: द्रव्य-निधि और भाव-निधि। द्रव्य-निधि वह है जो पौद्गलिक (सामूहिक) धन रूप होता है, जो राजा, महाराजा और सेठ-साहुकारों के यहाँ पाया जाता है। यह निधि, निधि तो अवश्य है; परन्तु प्रधान नहीं अपितु निकृष्ट है। यह केवल भोग, विलासी संकुचित विचार वाले संसारी मनुष्यों के ही काम की चीज़ है। अविशिष्ट दूसरा भावनिधि अतीव उत्कृष्ट है। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। यह निधि आचार रूप में निर्ग्रन्थ साधुओं के पास ही मिल सकती है। जिस प्रकार संसारी जीव अपने द्रव्य-कोष की रक्षा