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________________ . टीका- इस काव्य में इस सद्वाक्य शुद्धि नामक सप्तम अध्ययन का उपसंहार किया है। यथाजो साधु भाषा के गुणों की तथैव दोषों की परीक्षा करके वचन बोलने वाला है तथा जिसने पाँचों इन्द्रियों को भलीभाँति वश में किया है, इतना ही नहीं, किन्तु जिसने क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष का भी निरोध कर लिया है वह इसी कारण से अनिश्रित है अर्थात् द्रव्य और भाव से सभी प्रकार की लौकिक प्रतिबन्धकताओं से रहित है। ऐसा वह सर्व श्रेष्ठ साधु, पूर्वकृत पापरूप मल को आत्म प्रदेशों से पृथक् कर इस लोक की और परलोक की समाराधना कर लेता है। अर्थात् वाक् संयम द्वारा वह इस लोक में तो यश(कीर्ति) प्राप्त करता है और परलोक में निर्वाण पद प्राप्त करता है। सूत्रकार के कथन का हृदर्यगम करने योग्य तात्पर्य यह है कि, साधु को बोलते समय वचनशुद्धि अवश्यमेव करनी चाहिए। क्योंकि, वचन शुद्धि ही साधु को अपने ध्येय तक पहुँचाने में पूर्ण सहायक है। इससे दोनों लोकों में अनुपम सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है। "इस भाँति श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज, जंबू स्वामी जी से कहते हैं कि, हे वत्स ! जिस प्रकार मैंने श्री भगवान् महावीर जी से इस 'सुवाक्य शुद्धि' नामक सप्तम अध्ययन का अर्थ सुना है, उसी प्रकार मैंने तुझ से कहा है; अपनी बुद्धि से मैंने इस में कुछ भी नहीं जोड़ा है।" सप्तमाध्ययन समाप्त। सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [307
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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