________________ व्याकरण सम्बन्धी गुणदोषों का भलीभाँति ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। क्योंकि व्याकरण सम्मत शुद्ध भाषा ही प्रशंसनीय होती है। यहाँ सूत्रकार ने मुनि के लिए तीन विशेषणों का प्रयोग किया है। वे तीन विशेषण, संक्षिप्त रूप से मनन करने योग्य शब्दों में इस प्रकार हैं- सकल जीव संरक्षक, विमल चारित्र-रत, और सकल-तत्त्वातत्त्वमर्मज्ञ / इन तीन विशेषणों से सूत्रकार का यह भाव है कि, जो मुनि इन तीनों विशेषणों से विशेषित होते हैं, वे ही पूर्ण रूप से अनवद्य-भाषा के भाषी हो सकते हैं। भाषा-शुद्धि के लिए अन्तर्हृदय की स्वच्छता अतीव आवश्यक है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, भाषा-शद्धि का फल बतलाते हए इस अध्ययन को समाप्त करते परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, चक्कसायावगए अणिस्सिए। स निद्भुणे धुन्नमलं पुरेकर्ड, आराहए लोगमिणं तहा परं॥५७॥ त्ति वेमि। इअ सुवक्कसुद्धी णाम सत्तमं अज्झयणं समत्तं। परीक्ष्यभाषी सुसमाहितेन्द्रियः, अपगतचतुःकषायः अनिश्रितः। स निर्दूय धूतमलं पुराकृतं, आराधयेत् लोकमिमं तथा परम्॥५७॥ इति ब्रवीमि। इति सद्वाक्यशुद्धि नाम सप्तममध्ययनम्। पदार्थान्वयः- परिक्खभासी-परीक्षापूर्वक वचन बोलने वाला तथा सुसमाहिइंदिए-समस्त इन्द्रियों को वश में रखने वाला, इसी प्रकार चउक्कसाया-वगए-चारों कषायों को वश में रखने वाला अणिस्सिएप्रतिबन्ध रहित स-वह साधु पुरेकडं-पूर्वकृत धुन्नमलं-पाप मल को निद्धणे-धूनकर (नष्ट कर) इणं-इस लोगं-लोक की तहा-तथा परं-परलोक की आराहए-आराधना करता है। मूलार्थ- जो सदा परीक्षापूर्ण भाषण करने वाला है जो समस्त इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला है, जो चार कषायों का पूर्ण निरोध करने वाला है, वही प्रतिबंधता रहित स्वतंत्र साधु; पूर्वजन्मोपार्जित कर्म मल को दूर कर लोक और परलोक दोनों की सम्यक् प्रकार से आराधना करता है। 306] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्