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________________ हो रहा है; पर यह किन्हीं विरले साधु पुरुषों को ही मिलता है। संसार मानी श्रेष्ठ पुरुष भला जिस व्यक्ति की प्रशसा करे; क्या यह उस व्यक्ति के लिए कम सौभाग्य की बात है ? श्रेष्ठ पुरुषों में प्रशंसा पाया हुआ मनुष्य ही आगे चलकर त्रिलोक-पूज्य होता है। सूत्र के प्रारम्भ में प्रथम जो पद दिया है, वह 'सद्वाक्य शुद्धि''स्ववाक्य शुद्धि' 'सुवाक्य शुद्धि''स वाक्य शुद्धि' अर्थात् सद्वाक्य की शुद्धि को, अपने वाक्य की शुद्धि को, श्रेष्ठ वाक्य की शुद्धि को और वह साधु , वाक्य शुद्धि को विचार कर- इस प्रकार कई रूपों में देखने में आता है। पर यह सभी पद वस्तुत: ठीक हैं, क्योंकि, इन सब पदों का अर्थ युक्ति-संगत एवं प्रकरण संगत है। उत्थानिका- अब फिर इसी विषय को दूसरे शब्दों में कथन किया जाता है :"भासाइ दोसे अ गुणे अ जाणिआ, तीसे अ दुढे परिवजए सया। छसु संजए सामणिए सया जए, . वइज बुद्धे हिअमाणुलोमिअं॥५६॥ भाषायाः दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वा, तस्याश्च दुष्टायाः परिवर्जकः सदा। षट्सुसंयतः श्रामण्ये सदा यतः, .: वदेत् बुद्धो हितमानुलौमिकम्॥५६॥ पदार्थान्वयः- छसु-षट्काय के विषय में सजए-यत्न करने वाला तथा सामणिए-श्रामण्य भाव में सया-सदा जए-यत्न शील रहने वाला बुद्धे-ज्ञानी साधु भासाइ-भाषा के दोसे-दोषों को अ-तथा गुणेअगुणों को जाणिया-जान कर अ-तत्पश्चात् तीसे-उस दुढे-दुष्ट भाषा को सया-सदैव काल परिवजए-छोड़ दे और हिअमाणुलोमिअं-हितकारी तथा सभी प्राणियों के अनुकूल भाषा को वइज-बोले। .. मूलार्थ- सदैव काल षटकायिक जीवों की रक्षा करने वाला तथा स्वीकृत संयम में पुरुषार्थ रत रहने वाला सम्यग्ज्ञान धारी मुनि; पूर्व कथित भाषा के गुण और दोषों को भली भाँति जान कर स्व पर वंचक दुष्ट भाषा को तो छोड़ दे और काम पड़ने पर केवल स्व-पर हितकारी सुमधुर भाषा को ही बोले। टीका- इस काव्य में भी पूर्वोक्त विषय का ही दिग्दर्शन कराया गया है। यथा - जो साधु छः . काय के जीवों की सदैव काल यना करने वाला है तथा श्रामण्य भाव में (चारित्र में ) पुरुषार्थ करने वाला है; उस तत्त्वज्ञ मुनि को योग्य है कि, वह भाषा के दोष और गुणों को ठीक प्रकार से जान कर दुष्ट-भाषा को, (दोष युक्त भाषा को) तो सदैव काल के लिए वर्जदे और सब जीवों के हित करने वाली तथा मधुर होने से सबको रुचने वाली शुद्ध भाषा का ही उच्चारण करे, जिस से अपनी और पर की विराधना न हो एवं आत्मरक्षा और संयमरक्षा भलीभाँति की जा सके। भाषा के गुण दोषों के सम्बन्ध में एक बात और भी है। वह यह कि, आचारांग कथित एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन एवं लिङ्गादि सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [305
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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