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________________ पीड़ा होती हो; यथा-मांस खाने से कोई दोष नहीं है। इसी प्रकार अन्य विषयों में भी जान लेना . चाहिए। साधु को इस प्रकार की भाषा क्रोध के, लोभ के, भय के तथा हास्य के वश होकर कदापि नहीं बोलनी चाहिए। यहाँ क्रोध आदि के साथ उपलक्षण से मान एवं प्रेम आदि के भावों से कहने का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। यह भाषा क्यों नहीं बोलनी चाहिए ? इसका उत्तर यह है कि, इससे प्रभूततर कर्मों का बंध होता है। क्योंकि, यह भाषा सत्य, प्रीति और अनुकंपा आदि की नाश करने वाली है। ___उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'शुद्ध भाषा-भाषी साधु की सत्पुरुषों में पूर्णतया प्रशंसा होती है' यह कहते हैं :सुवक्कसुद्धिं समुपेहिआ मुणी, गिरं च दुटुं परिवज्जए सया। मिअं अदुढे (8) अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहइ पसंसणं // 55 // सद्वाक्यशुद्धिं सम्प्रेक्ष्य मुनिः, गिरं च दुष्टां परिवर्जयेत् सदा। मितामदुष्टामनुचिन्त्य भाषते, सतां मध्ये लभते प्रशंसनम् // 55 // , पदार्थान्वयः- जो सुवक्क सुद्धिं- श्रेष्ठ वचन की शुद्धि की समुपेहिआ- भलीभाँति आलोचना कर के सया-सदा दुटुं-दुष्ट गिरं-भाषा को परिवज्जए-सर्वथा छोड़ देता है च-और मिश्र-परिमाण पूर्वक अदुटुं-दुष्टता से रहित शुद्ध वचन अणुवीइ-विचार कर भासए-बोलता है, वह मुणी-मुनि सयाणमझे-सत्पुरुषों के मध्य में पसंसणं-प्रशंसा लहइ-प्राप्त करता है। ____ मूलार्थ-जो मुनि भाषा की शुद्धि के समस्त भेद प्रभेदों की (विधि निषेध के पक्षों की) पूर्णरीत्या आलोचना करके निन्दित भाषा को तो छोड़ देता है और प्रथम हानि-लाभ का पूर्ण विचार करके पश्चात् दुष्टता रहित हित, मित, सत्य, भाषा बोलता है, वह सत्पुरुषों में अनिर्वचनीय प्रशंसा प्राप्त करता है। ___टीका- इस काव्य में वाक्य शुद्धि का फल वर्णन किया गया है। यथा-जो व्यक्ति वचन-शुद्धि की पूर्ण आलोचना करके सभी दुष्ट भाषाओं को छोड़ देता है और स्वर तथा परिमाण से परिमित देशकाल के अनुकूल सर्वथा शुद्ध भाषा को आगे पीछे (आदि-अन्त) के पूरे पूरे सोच विचार के साथ बोलता है, वह मुनि साधुजनों में, श्रेष्ठ पुरुषों में पूर्ण प्रशंसा प्राप्त करता है। क्योंकि, यह बात भलीभाँति शिष्ट जन मान्य है कि, जिस की भाषा मधुर, संस्कृत और परिमाण पूर्वक होने से परिमित तथा सब . प्रकार के दोषों से रहित होती है, वह जहाँ कहीं जाएगा वहीं प्रशंसा प्राप्त करेगा। पाठक इस प्रशंसा के फल को अल्प न समझें। यह फल सर्व श्रेष्ठ फल है। समस्त संसार इस फल की प्राप्ति के लिए बेचैन 304] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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