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________________ . पदार्थान्वयः- णं-आकाश के प्रति अंतलिक्खंत्ति-अन्तरिक्ष अ-तथा गुज्झाणुचरिअत्तिदेवों से सेवित है इस प्रकार बूआ-कहे तथैव रिद्धिमंतं-ऋद्धिशाली नरं-मनुष्य को दिस्स-देखकर रिद्धिमंतंत्ति-यह ऋद्धिवाला है ऐसा आलवे-कहे। ___ मूलार्थ-भाषा-शास्त्र-विशारद मुनि, आकाश को आकाश एवं देवों से सेवित कहे और इसी प्रकार सम्पत्तिशाली मनुष्य को सम्पत्तिशाली ही कहे। टीका- इस गाथा में आकाश और मनुष्य के विषय में वर्णन किया गया है। यथा-आकाश को आकाश तथा यह आकाश देवों के चलने का मार्ग है, इसलिए यह देवों द्वारा सेवित है, यह कहे। यही वक्तव्य मेघ के विषय में भी जान लेना। इसी प्रकार यदि किसी ऋद्धि वाले पुरुष को देखे, तब उसके विषय में यह कहना चाहिए कि, यह ऋद्धि वाला पुरुष है। क्योंकि इस प्रकार बोलने से व्यवहार में मृषावाद की आपत्ति नहीं होती। तात्पर्य इतना ही है, कि जो वस्तु जिस प्रकार से हो, उसे उसी प्रकार से कहना चाहिए। इसमें किसी प्रकार की भी दोषापत्ति नहीं हो सकती। उत्थानिका- अब सूत्रकार, परिहास आदि में भी सावधानुमोदिनी भाषा के बोलने का निषेध करते हैं :तहेव सावजणुमोअणी गिरा, ___ ओहारिणी जा अ परोवघाइणी। से कोह लोह भय हास माणवो, .. 'न हासमाणो वि गिरं वइजा // 54 // तथैव सावधानुमोदिनी गी:, अवधारिणी या च परोपघातिनी। तां क्रोध-लोभ-भय-हासेभ्यो मानवः, / न हसन्नपि गिरं वदेत्॥५४॥ .. पदार्थान्वयः-तहेव-तथैव जा-जो गिरा-भाषा सावजणुमोअणी-पापकर्म की अनुमोदन करने वाली हो ओहारिणी-निश्चयकारिणी हो अ-और संशयकारिणी हो एवं परोवघाइणी-पर जीवों को पीड़ा उत्पन्न करने वाली हो से-उसे माणवो-मननशील साधु कोह लोह भय हास-क्रोध, लोभ, भय और परिहास से हासमाणोवि-हँसता हुआ भी गिरं-वाणी नवइज्जा-न बोले। ___ मूलार्थ- जो भाषा, पाप कर्म की अनुमोदन करने वाली हो, निश्चयकारिणी हो, पर जीवों को पीड़ा पहुँचाने वाली हो, उसको क्रोध से, लोभ से, भय से तथा परिहास से हँसता हुआ भी साधु न बोले। ____टीका- साधु को योग्य है कि, जो भाषा पाप कर्म की अनुमोदन करने वाली हो; यथाअच्छा हुआ, यह ग्राम नष्ट कर दिया। अथवा जो निश्चय कारिणी हो; यथा-कार्य इसी प्रकार होगा। अथवा संशय कारिणी हो, यथा-यह देवदत्त नव कम्बल वाला है। या जिसके बोलने से पर जीवों को सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [303
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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