SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तथैव मेघं वा नभो वा मानवं, न देवदेव इति गिरं वदेत्। सम्मूच्छित उन्नतो वा पयोदः, . वदेत् वा वृष्टो बलाहक इति // 52 // पदार्थान्वयः- तहेव-इसी भाँति साधु मेहं-मेघ को व-अथवा नहं-आकाश को व-किंवा माणवं-किसी मनुष्य को देवदेवत्ति-यह देव है, यह देव है इस प्रकार गिरं-भाषा न वइजा-न बोले। किन्तु मेघ को देखकर पोए-यह मेघ समुच्छिए-चढ़ा हुआ वा-तथा उन्नए-उन्नत हो रहा है वाऔर वुटुबलाहय-यह मेघ वर्षा कर चुका है त्ति-इस प्रकार वइज्ज-बोले। मूलार्थ-तत्त्वज्ञ-मुनि मेघ, आकाश तथा राजा आदि मनुष्य के प्रति 'यह देवता है' ऐसा न कहे। हाँ, मेघ के लिए 'यह मेघ चढ़ा हुआ है 'वर्षणोन्मुख है' उन्नत हो रहा है, वर्ष गया है' इत्यादि कह सकता है। टीका-निर्ग्रन्थ साधु मेघ के लिए, आकाश के लिए अथवा किसी प्रतिष्ठित राजा आदि मनुष्य के लिए 'यह देव है' ऐसा न कहे। क्योंकि यह कथन अत्युक्ति पूर्ण है। अतः इससे मृषावाद का दोष लगता है। वस्तुतः यह कथन बुद्धि से निश्चयात्मक देव कहने का ही प्रतिषेधक है, उपमालङ्करादि की अपेक्षा से नहीं। आलङ्कारिक भाषा में यदि ऐसा कहीं कहा जाए, तो कोई दोष नहीं होता। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, जब बादल उन्नत शाली हो, चारों ओर घिर कर आए हों एवं बरसने लगें तब उस समय क्या कहना चाहिए ? इस शङ्का के समाधान में सूत्रकार स्वयं वर्णन करते हैं कि 'यदि मेघ चढ़ा हुआ आए' तो मेघ चढ़ा हुआ आ रहा है' 'एवं बरसने लगे' तो मेघ बरस रहा है, इस प्रकार कहना चाहिए। सिद्धान्त यह निकला कि, मेघ को 'देवता आता है तथा देवता बरस रहा है' इस प्रकार नहीं कहना चाहिए। यदि ऐसा कहा जाए कि, इस काव्य में 'देव देव' यह द्विरुक्ति पद क्यों दिया गया है ? इस शङ्का के उत्तर में कहा जाता है कि, इस द्विरुक्ति पद का सम्बन्ध मेघ, आकाश वा मनुष्य के साथ है। इस लिए 'मेघ को हे देव !, आकाश को हे देव !, मनुष्य को हे देव !, नहीं कहना एतदर्थ' द्विरुक्तिपद है तथा अतिशय अर्थ में द्विरुक्ति पद उपादेय है। अस्तु 'भृशाभीक्ष्ण्या विच्छेदे प्राग् द्विःशा० 2 / 3 / 2 / ' इस सूत्र द्वारा उक्त अर्थों के लिए द्विरुक्तिपद उच्चारण किया जाता है; यथा-वद वद, जय जय नमोनमः इत्यादि। उत्थानिका- अब सूत्रकार, आकाश एवं मनुष्य के विषय में कहते हैं : अंतलिक्खंत्ति णं बूआ, गुज्झाणुचरिअत्ति अ। रिद्धिमंतं नरं दिस्स, रिद्धिमंतंत्ति आलवे॥५३॥ अन्तरिक्षमिति एतद् ब्रूयात्, गुह्यानुचरितमिति च। ऋद्धिमन्तं नरं दृष्ट्वा, ऋद्धिमन्तमिति आलपेत्॥५३॥ 302] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy