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________________ वाओ वुटुं च सीउण्हं, खेमं धायं सिवंत्ति वा। कयाणु हुज एआणि, मा वा होउत्ति नो वए॥५१॥ वातो (वायुः) वृष्टं च शीतोष्णं, क्षेमं धातं शिवमिति वा। कदा नु भवेयुः एतानि, मा वा भवेयुरिति नो वदेत्॥५१॥ पदार्थान्वयः- वासो-वायु वुट्ठ-वर्षा च-और सीउण्हं-शीत एवं उष्ण खेमं-रोगादि उपद्रव से. शान्ति धायं-सुभिक्ष वा-अथवा सिवंत्ति-कल्याण एआणि-ये सब कयाणु-किस समय हुजहोंगे वा–तथा मा होउ-ये कार्य अब न हों त्ति-इस प्रकार साधु नोवए-नहीं बोले। मूलार्थ- घाम आदि से पीड़ित साधु को अपनी पीड़ा निवृत्ति के लिए वायु, वृष्टि, शीत, उष्ण, क्षेम (रोगादि निवृत्तिरूप) सुभिज्ञ और कल्याण के विषय में ये कब होंगे' अथवा 'ये न हों' इस प्रकार कभी नहीं कहना चाहिए। ____टीका- जो बातें स्वाभाविक होने वाली हैं, उनके विषय में साधु को विवेक पूर्वक बोलना चाहिए। यथा शीतल पवन (मलय मारुतादि) वर्षा, शीत (जाड़ा), उष्ण (गर्मी), राज रोग की निवृत्ति (राजविज्वर शून्यम्), सुभिक्ष (सुकाल) और सब प्रकार के उपसर्गों से रहित हो जाने से कल्याण रूप समय, 'ये सब कार्य कब होंगे तथा ये कार्य नहीं हो' इस प्रकार मुनि आराम के लिए कदापि भाषण न करे। कारण यह है कि, एक तो अधिकरण के दोष का प्रसंग आता है। दूसरे वायु आदि के उत्पन्न होने से अनेक जीवों को पीड़ा होती है तथा साधु के कहे अनुसार यदि पूर्वोक्त कार्य न हों, तब साधु को आर्त ध्यान उत्पन्न होगा। इतना ही नहीं, किन्तु यदि कोई यह सुन ले और फिर न हो, तो सुनने वाले की धर्म पर से या उस मुनि पर से श्रद्धा न्यून हो जाएगी। इसी प्रकार की और भी बहुत सी हानियाँ हैं, इस लिए मुनि को उक्त क्रियाओं के विषय में अपनी सम्मत्ति प्रदान नहीं करनी चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, मेघ आदि को देवता कहने का निषेध करते हैं :तहेव मेहं व नहं व माणवं, . न देव देवत्ति गिरं वइज्जा। समुच्छिए उन्नए वा पओए, वइज्ज वा वुट्ठ बलाहयत्ति // 52 // 1. क्षेम का अर्थ बहुत से अर्थकार 'राज द्रोह की निवृत्ति' करते हैं; परन्तु यह अर्थ ठीक नहीं। क्लेश शान्ति के लिए कामना ही नहीं प्रत्युत साधु अपनी मर्यादा में रहता हुआ प्रयत्न तक कर सकता है। टीकाकार का 'राजविन्चर शून्यम्' वाक्य भी राज रोग का अभाव ही बतलाता है, राज द्रोह का अभाव नहीं। सद्धर्ममण्डनकार श्री जवाहिराचार्य जी भी इसी अर्थ को स्वीकृत करते हैं। उन्होंने 'सद्धर्ममण्डन' में इस गाथा पर पठनीय विस्तृत विवेचन किया है-संपादक सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [301
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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