________________ पदार्थान्वयः- नाणदसणसंपन्नं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय से संपन्न तथा संजमे-संयम ' में अ-और तवे-तप में रयं-पूर्ण अनुरक्त एवं-इस प्रकार के गुणसमाउत्तं-सद्गुणी संजयं-साधु को ही साहुं-साधु आलवे-कहे। मूलार्थ- जो साधु ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुण से संपन्न हो, संयम और तप की क्रियाओं में पूर्ण रूप से संलग्न हो, उसी को साधु कहना चाहिए। ____टीका- इस गाथा में साधु की परीक्षा के लक्षण प्रतिपादित किए हैं। यथा-जो व्यक्ति सम्यग्ज्ञान, सम्यग्-दर्शन एवं सम्यक्-चारित्र से युक्त है; तथैव संयम और तप के विषय में पूर्णतया रत है; किंबहुना जो इस प्रकार के साधु योग्य गुणों से युक्त है, उसी संयत व्यक्ति को साधु कहना चाहिए। तात्पर्य इतना ही है कि, जो सम्यग्-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र से संयुक्त हैं, वे ही साधु कहे जा सकते हैं और जिसमें पूर्वोक्त गुण न हों, उसे साधु कभी नहीं कहना चाहिए। वह केवल वेषधारी है, अतः उसे द्रव्यलिङ्गी कहना ही ठीक है। ___उत्थानिका- अब सूत्रकार, युद्ध में किसी एक की जय और पराजय के कहने का निषेध करते हैं : देवाणं मणुआणं च, तिरिआणं च वुग्गहे। अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउत्ति नो वए॥५०॥ देवानां मनुजानां च, तिरश्चाञ्च विग्रहे। अमुकानां जयो भवतु मा वा भवतु इति नो वदेत्॥५०॥ पदार्थान्वयः- देवाणं-देवताओं के च-तथा मणुआणं-मनुष्यों के च-तथा तिरिआणंतिर्यंचों के वुग्गहे-पारस्परिक संग्राम के हो जाने पर अमुगाणं-अमुक पक्षवालों की जो-जय होउ-हो वा-तथा अमुक पक्ष वालों की मा होउ-जय न हो त्ति-इस प्रकार साधु नोवए-नहीं बोले। मूलार्थ-देवता, मनुष्यों और पशुओं के परस्पर युद्ध होने पर 'अमुक की जीत हो और अमुक की हार हो' ऐसा साधु को अपने मुँह से नहीं कहना चाहिए। ___टीका- यदि कभी साधु, अपने अवधि आदि ज्ञान में देवों के संग्राम को देखे, तथा प्रत्यक्ष में मनुष्यों वा पशुओं के संग्राम को देखे, तो साधु यह नहीं कहे कि, अमुक पक्ष वालों की तो जीत हो और अमुक पक्ष वालों की हार हो। क्योंकि, इस प्रकार के बोलने से परस्पर द्वेष तथा अधिकरण आदि दोषों की कालिमा से आत्मा कलुषित होती है। सूत्र में जो देवों के संग्राम के विषय में लिखा है, वह मुनि के अवधि आदि विशिष्ट ज्ञान की अपेक्षा से ही लिखा है। मनुष्य और पशुओं का संग्राम तो सब के प्रत्यक्ष होता है। सूत्र में आया हुआ 'विग्रह' शब्द वाग्युद्ध आदि सभी प्रकार के संग्रामों का वाचक है। अतः साधु को सभी प्रकार के युद्धों के विषय में किसी भी पक्ष में एवं प्रतिपक्ष में जय और पराजय की अपनी सम्मति नहीं प्रदान करनी चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'वर्षा आदि के होने और न होने के विषय में स्वयं कुछ न कहने का' साधु को उपदेश करते हैं :300] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्