________________ टीका- बुद्धि के सागर एवं धैर्य के सुमेरु मुनिराजों को योग्य है कि, वे गृहस्थों के प्रति 'यहाँ आओ, यहाँ बैठो, यहाँ सो जाओ, वहाँ जाओ' इत्यादि शब्दों का व्यवहार न करें। क्योंकि, ये शब्द आदेश के सूचक हैं; और गृहस्थ लोगों को उक्त क्रियाएँ करते समय प्रायः यत्न स्वल्प होता है। अतः यदि ये क्रियाएँ किसी प्राणी के वध की कारण हो जाएँ, तो साधु भी अनुमति आदि देने से पाप का भागी बन जाएगा। इस गाथा के देखने से यह भली भाँति सिद्ध हो जाता है कि जब गृहस्थ को उक्त बातें भी नहीं कहनी तो फिर गृहस्थ को सांसारिक कार्यों के विषय में तो कहना ही सर्वथा विरुद्ध है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, असाधु को साधु कहने का निषेध करते हैं :* बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो। न लवे असाहुं साहुत्ति, साहुं साहुत्ति आलवे॥४८॥ बहव इमे असाधवः, लोके उच्यन्ते साधवः। न लपेत् असाधु साधुरिति, साधु साधुरित्यालपेत्॥४८॥ पदार्थान्वयः- बहवे- बहुत से इमे- ये प्रत्यक्ष असाहू- असाधु लोग भी लोए- संसार में साहुणो-साधु ही वुच्चंति-कहे जाते हैं। किन्तु निर्ग्रन्थ साधु असाहुं-असाधु को साहुत्ति-यह साधु है ऐसा न लवे-न कहे, किंच साहुं-साधु को ही साहुत्ति- यह साधु है इस प्रकार आलवे-निःसंकोच " होकर कहे। .. ___ मूलार्थ- संसार में बहुत से ये प्रत्यक्ष असाधु हैं, जो साधु कहे जाते हैं। किन्तु प्रज्ञावान् साधु, असाधु को साधु न कहे; अपितु साधु को ही साधु कहे। टीका- इस गाथा में असत्य व्रत के परित्याग के विषय में ही उपदेश किया गया है। इस लोक में बहुत से असाधुजन हैं, किन्तु वे अपने आपको निर्वाण के साधक बतलाते हुए साधु ही बतलाते हैं; अतः बुद्धिमान् साधु, ऐसे असाधु पुरुषों को साधु न कहे अपितु साधु को ही साधु कहे, जिससे मृषावाद का प्रसंग उपस्थित न हो सके। अब प्रश्र यह उपस्थित होता है कि, जिसका वेष तो साधु का है, किन्तु भाव से कोई निर्णय नहीं हो सकता कि यह साधु है या असाधु। तब इस विषय में * क्या कहना चाहिए ? उत्तर में कहना है कि, जिसका लोक में अपवाद फैला हुआ है उसको साधु कदापि न कहे, अपितु वेष-धारी कह सकता है और जिसका दुनियाँ में अपवाद नहीं है प्रत्युत पूरीपूरी प्रशंसा है, उस की ठीक प्रकार से परीक्षा करके उसे साधु ही कहना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्ष में व्यवहार शुद्धि ही देखी जाती है, उसी पर अच्छे बुरे का निर्णय किया जाता है; परन्तु ठीक निश्चय तो केवली भगवान् ही कर सकते हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकार, स्वयं उत्तमोत्तम साधु के लक्षण बतलाते हैं :नाणदंसणसंपन्नं , संजमे अ तवे रयं। एवं गुणसमाउत्तं, संजयं साहुमालवे॥४९॥ ज्ञानदर्शनसंपन्नं , संयमे च तपसि रतम्। एवं गुणसमायुक्तं, संयतं साधुमालपेत्॥ 49 // सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [299