SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अप्पग्घे वा महग्घे वा, कए वा विक्कए वि वा। पणिअढे समुप्पन्ने, अणवजं विआगरे॥ 46 // अल्पार्थे वा महाचै वा, क्रये वा विक्रयेऽपि वा। पणितार्थे समुत्पन्ने, अनवद्यं व्यागृणीयात्॥४६॥ पदार्थान्वयः- अप्पग्घे–अल्प मूल्य वाले वा-अथवा महग्घेवा-महान् मूल्य वाले पणिअटेकिराने के लिए कएवा-खरीदने के विषय में वा-अथवा विक्कएवि-बेचने के विषय में भी यदि कभी समुप्पन्ने-प्रसंग उत्पन्न हो जाए तो अणवजं-निरवद्य वचन विआगरे-बोले (कथन करे)। मूलार्थ- अल्प मूल्य वाले तथा बहुमूल्य वाले किराने के खरीदने और बेचने के विषय का यदि कोई प्रसंग आ जाए तो, साधु को पूर्ण निरवद्य वचन बोलना चाहिए। टीका- यदि कारण वशात् कभी बोलना ही पड़े तो जो पदार्थ अल्प मूल्य वाले तथा बहुमूल्य वाले हैं, उन पदार्थों के खरीदने और बेचने के विषय में यदि कभी कोई प्रश्न ही करे तो साधु को उन पदार्थों के विषय में निरवद्य वचन ही बोलना चाहिए। जैसे कि-'नाधिकारोऽत्रतपस्विनां व्यापाराभावादिति' व्यापार का अभाव होने से मुनियों को यह कोई अधिकार नहीं है जो वे फिर व्यापार सम्बन्धी वार्तालाप करें। क्योंकि जिन मुनियों ने स्वयं ही व्यापार छोड़ रक्खा है, फिर उन्हें क्या अधिकार है कि वे उस विषय में अपनी सम्मति प्रदान करें। सम्मति वहीं दी जाती है, जहाँ कुछ किसी का अधिकार होता है। अतः यह कार्य गृहस्थों के हैं, न कि साधुओं के। साधु धार्मिक-व्यापार की बात जानते हैं, वह पूछना हो तो प्रसन्नतापूर्वक पूछ सकते हो। उत्थानिका- अब सूत्रकार, गृहस्थ से उठने-बैठने आदि की क्रियाओं के कहने का निषेध करते हैं : तहेवासंजयं धीरो, आस एहि करेहि वा। सयं चिट्ठ वयाहि त्ति, नेवं भासिज्ज पन्नवं॥४७॥ तथैवाऽसंयतं धीरः, आस्व एहि कुरु वा। शेष्व तिष्ठ व्रज इति, नैवं भाषेत प्रज्ञावान्॥४७॥ . पदार्थान्वयः- तहेव- इसी प्रकार पन्नवं- प्रज्ञावान् और धीरो- धैर्यवान् साधु असंजयंअसंयमी-गृहस्थ के प्रति आस-यहाँ बैठो एहि-इधर आओ करेहि-यह कार्य करो सयं-यहाँ शयन कर लो चिट्ठ- यहाँ खड़े रहो वा-अथवा वयाहि-अमुक स्थान पर जाओ त्ति- इस प्रकार नेवंभासिज्जनिश्चयपूर्वक भाषण न करे। मूलार्थ- बुद्धिमान् और धैर्यवान् साधु को असंयत गृहस्थों के प्रति यहाँ बैठो, इधर आओ, अमुक कार्य करो, सो जाओ, खड़े रहो एवं चले जाओ, इत्यादि सावध भाषा से नहीं बोलना चाहिए। 298] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy