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________________ में यह न कहे कि हाँ, मैं सब कह दूंगा। कारण कि, जिस प्रकार उसने स्वर व्यञ्जन संयुक्त भाषा भाषण की है वह उसी प्रकार नहीं कही जा सकती अथवा तू उसको ये मेरी बात यथार्थ रूप से अवश्य कह देना, इस प्रकार भी न कहे। इसका भी कारण वही ऊपर वाला ही है कि जिस प्रकार कोई बात कहता है, दूसरे से उसी प्रकार कहना सर्वथा असंभव है। तात्पर्य इतना ही है कि, बुद्धिमान साधु को वार्तालाप आदि सब कार्यों के लिए सभी स्थानों पर विचार कर ही बोलना चाहिए। जिससे सत्य व्रत में किसी प्रकार का मृषावाद का दूषण न लगे। यदि साधु बिना विचार किए योंही मन कल्पित बोलेगा तो एक नहीं बल्कि अनेक नाना प्रकार की आपत्तियों पर आपत्तियाँ आती चली जाएगी, जिनका हटाना फिर अशक्य होगा। परन्तु यदि कोई साधु किसी साधु के प्रति अपना पत्र ही लिख कर दे दे, तो वह बात ही और है। उत्थानिका- पुनरपि व्यापार सम्बन्धी भाषा के विषय में ही कहते हैं :सुक्की वा सुविक्कीअं, अकिजं किजमेव वा। इमं गिण्ह इमं मुंच, पणिअं नो वियागरे॥४५॥ सुक्रीतं वा सुवक्रीतं, अक्रेयं क्रेयमेव वा। इदं गृहाण इदं मुञ्च, पणितं न व्यागृणीयात्॥४५॥ पदार्थान्वयः- सुक्कीनं-अच्छा किया यह पदार्थ खरीद लिया वा-अथवा सुविक्की-अच्छा किया अमुक पदार्थ बेच दिया वा-अथवा अकिजं-यह पदार्थ उत्तम नहीं, अतः खरीदने योग्य नहीं है अथवा किजं-यह पदार्थ अच्छा है खरीदने योग्य है, अथवा इम-इस पणिग्रं-किराने को गिण्ह-ग्रहण कर लो और इमं- इस किराने को मुंच-बेच दो एवं-इस प्रकार मुनि को नो वियागरे- नहीं कहना चाहिए। ___ मूलार्थ- संसार विरक्त साधु को व्यापार के विषय में अच्छा किया यह किराना खरीद लिया, और यह किराना बेच दिया, यह किराना खरीदने लायक है, और यह खरीदने लायक नहीं है, समय अच्छा है यह किराना ले लो और यह बेच डालो, इस प्रकार अयोग्य भाषण कभी नहीं करना चाहिए। टीका- इस गाथा में व्यापार विषयक वर्णन किया गया है। जैसे कि, किसी ने मुनि को अमुक पदार्थ दिखलाया तब साधु उससे यह न कहे कि अच्छा किया, तुमने यह पदार्थ खरीद लिया तथा यह भी न कहे कि अच्छा किया, तुमने यह अमुक पदार्थ बेच दिया। क्योंकि जो तुमने खरीदा है, वह तो मँहगा (बहुमूल्य) होने वाला है और जो बेचा है वह मंदा (अल्पमूल्य) होने वाला है तथा यह पदार्थ खरीदने योग्य नहीं है और यह खरीदने योग्य है। अतः तुम इस पदार्थ को खरीदो और इसको बेचो। इस प्रकार की व्यापार सम्बन्धी किराने के खरीदने और बेचने की भाषा प्रज्ञापति साधु, कदापि भाषण न करे। कारण यह है कि, इससे अप्रीति और अधिकरण आदि दोषों के लगने की संभावना की जा सकती है। अर्थात् यदि कथित वस्तु महाघ या अल्पार्घ न हुई तो साधु पर लोगों की तरफ से अप्रतीति उत्पन्न होगी। यदि उसी प्रकार हो गई तो अधिकारणादि दोषों की उपस्थिति होगी। उत्थानिका- अब फिर इसी विषय पर कहा जाता है : सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [297
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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