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________________ तथैव - सावधं योगं, परस्यार्थं च निष्ठितम्। क्रियमाणमिति वा ज्ञात्वा, सावद्यं न लपेत् मुनिः॥४०॥ पदार्थान्वयः- तहेव-तथैव सावजं-पाप युक्त जोगं- योग (व्यापार) परस्सट्ठाअ-किसी दूसरे के लिए निट्ठियं-भूत काल में किया गया है कीरमाणं-वर्तमान काल में किया जा रहा है वा-अथवा भविष्य काल में किया जाएगा त्ति-इस प्रकार नच्चा-जान कर मुणी-मुनि को सावजं-पाप युक्त भाषा न लवे- नहीं बोलनी चाहिए। ___मूलार्थ- मननशील मुनि को पापमय व्यापार 'जो दूसरे के वास्ते भूतकाल में बनाया गया हो, या वर्तमान काल में बन रहा हो या भविष्य काल में बनेगा' उसे जानकर सावध वाणी नहीं बोलनी चाहिए। टीका-जिस प्रकार पूर्व सावध भाषा बोलने का प्रतिषेध किया गया है, ठीक इसी प्रकार यहाँ भी जो अन्य किसी के लिए सावध व्यापार होता है, उसके प्रति सावध भाषा बोलने का निषेध किया गया है। इस गाथा में अतीत, वर्तमान एवं भविष्यत् तीनों काल में पाप युक्त भाषा भाषण करने का प्रतिषेध किया है। यथा- पूर्व काल में अमुक संग्राम बहुत ही अच्छा हुआ तथा वर्तमान में जो ये संग्रामादि कार्य हो रहे हैं, सो वे बहुत ही अच्छे हो रहे हैं एवं आगामी काल में जो अमुक संग्राम के होने की संभावना लोग कर रहे हैं, यदि वह संग्राम हो गया, तो बहुत ही अच्छा होगा इत्यादि सावध भाषण साधु को नहीं करना ही उचित है। यह संग्राम का उदाहरण केवल समझाने के लिए दिया है, अतएव इसी प्रकार की अन्य सावद्य-क्रियाओं की भी संभावना कर लेनी चाहिए। उत्थानिका-अब सूत्रकार, स्वयं सावद्यभाषा का उदाहरण देकर बोलने का निषेध करते हैं :सुकड़ित्ति सुपक्कित्ति, सुच्छिन्ने सुहड़े मड़े। सुनिट्ठिए सुलट्ठित्ति, सावजं वजए मुणी॥४१॥ सुकृतमिति सुपक्वमिति, सुछिन्नं सुहृतं मृतम्। सुनिष्ठितं . सुलष्टमिति, सावधं वर्जयेत् मुनि॥४१॥ .. पदार्थान्वयः- सुकड़ित्ति-वह प्रीति भोज आदि कार्य अच्छा किया सुपक्कित्ति-वह तैल आदि पदार्थ अच्छा पकाया सुछिन्ने-वह वन आदि काट दिया अच्छा किया सुहड़े-अच्छा हुआ, उस नीच की चोरी हो गई मड़-अच्छा हुआ वह दुष्ट मर गया सुनिट्टिए-अच्छा हुआ, उस धनाभिमानी का धन नष्ट हो गया सुलटेति-वह कन्या अतीव नवयौवना सुन्दर है, अतः विवाह करने योग्य है, इस प्रकार के सावज्ज-सावद्य वचनों को मुणी-मुनि वजए-सर्वथा छोड़ दे। ___मूलार्थ-विचार-शील साधु को, यह कभी नहीं कहना चाहिए, 'अच्छा किया यह भव्य गृह आदि बना लिया, अच्छा हुआ यह सहस्र पाक तैल आदि पका लिया, अच्छा हुआ यह विकट वन आदि काट दिया, अच्छा हुआ उस नीच की चोरी हो गई, अच्छा हुआ वह दुष्ट निन्दक मर गया, अच्छा हुआ जो उस अभिमानी का धन मूलतः नष्ट हो गया, तथा अच्छा हो यह कुमारिका विवाही जाए क्योंकि यह बड़ी सुन्दर है।' सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [293
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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