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________________ करने पड़ते हैं। सूत्र में आए हुए 'पाणिपिज्ज' शब्द का कई टीकाकार यह भी अर्थ करते हैं कि, इस नदी का पानी पीने योग्य है। परन्तु वृत्तिकार तो 'प्राणिपेया-तटस्थप्राणिपेया इति नो वदेत्' जिसके तट पर ठहर कर प्राणी पानी पीते हैं ऐसा अर्थ करते हैं। तात्पर्य इतना ही है कि साधु को उसी प्रकार बोलना चाहिए। जिस प्रकार सुनने वालों की प्रवृत्ति सावध कार्य में न हो सके। उत्थानिका- अब 'यदि कभी प्रयोजन वश नदियों के विषय में बोलना हो तो किस प्रकार बोलना चाहिए ?' यह कहा जाता है : बहु बाहड़ा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा। बहुवित्थड़ोदगा आवि, एवं भासिज पनवं // 39 // बहुभृता अगाधाः, बहुसलिलोत्पीडोदकाः / बहुविस्तीर्णोदका श्चापि, एवं भाषेत प्रज्ञावान्॥३९॥ पदार्थान्वयः- पनवं-प्रज्ञावान् साधु, नदियों को देख कर बहुबाहड़ा-ये नदियाँ प्रायः जल से भरी हुई हैं अगाहा-अतीव गम्भीर हैं बहु सलिलुप्पिलोदगा-अन्य नदियों के प्रवाह को पीछे हटाने वाली हैं आवि-और इसका पानी बहुवित्थडोदगा-बहुत विस्तार वाला है 'अपने तट का अतिक्रमण कर गया है' एवं-इस प्रकार विवेक पूर्वक भासिज-भाषण करे। ___मूलार्थ- बुद्धिमान् साधु को, नदियों को देख कर यदि कुछ कहना ही हो तो इस प्रकार कहना चाहिए कि, ये नदियाँ प्रायः जल से भरी हुई हैं, गंभीर हैं, (गहरी हैं) अन्य नदियों के जल-प्रवाह को पीछे हटाने वाली हैं, बहुत विस्तृत पानी वाली हैं और चौड़े पाट वाली हैं। टीका- साधु किसी समय स्वयं नदियों को देखे तथा कोई मार्गादि में गमन करते समय नदी विषयक प्रश्न ही कर ले तो साधु को निम्न प्रकार से बोलना चाहिए। यह नदी जल से पूर्ण भरी हुई पाटों पाट (लवालव) बह रही है तथा यह नदी बहुत ही अगाध-गंभीर है.। इतना ही नहीं, किन्तु इसका स्रोत (प्रवाह) अन्य नदियों के स्रोत (प्रवाह) को प्रतिहनन करने (रोकने) वाला है अर्थात् इस नदी का जल प्रवाह और नदियों के जल प्रवाह को हटा रहा है, इसी कारण से इस का जल अपने तट का अतिक्रम (लाँघ) कर इधर उधर अधिक फैल रहा है। उपर्युक्त पद्धति से भाषण करने से सावध पाप नहीं लगता और नदी की जो जो वर्तमान अवस्था होती है, उसका स्वरूप भी यथावत् कथन कर दिया जाता है। यदि किसी के पूछने पर इस प्रकार कहा जाए कि, 'इस विषय में मैं कुछ नहीं जानता हूँ' तो प्रत्यक्ष मृषावाद होने से पृच्छक के हृदय से साधु के ऊपर द्वेष उत्पन्न हो जाएगा अतएव सूत्रकार ने यह निरवद्य भाषण करने की प्रणाली बतलाई है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, सावद्य योग के कुवचनों का निषेध करते हैं :तहेव सावजं जोगं, परस्सट्ठा अ निट्ठि। कीरमाणं त्ति वा नच्चा, सावजं न लवे मुणी॥४०॥ 292] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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