________________ से ही कहना ठीक है, बिना कारण से नहीं। बिना कारण व्यर्थ प्रलाप करने से भाषा में निरवद्यता के स्थान में सावधता आए बिना नहीं रह सकती है। हित और मित भाषण में ही संयम-रक्षा एवं आत्मरक्षा है। उत्थानिका-अब सूत्रकार, फलों के विषय में न कहने योग्य शब्दों का उल्लेख करते हैं :तहा फलाइं पक्काई, पायखज्जाइं नो वए। वेलोइयाइं टालाइं, वेहिमाइत्ति नो वए॥३२॥ तथा फलानि पक्कानि, पाकखाद्यानि नो वदेत्। वेलोचितानि टालानि, द्वैधिकानीति नो वदेत्॥३२॥ पदार्थान्वयः- तहा-इसी प्रकार फलाइं-ये फल पक्काई-पक्व गए हैं तथा पायखज्जाइंपका कर खाने योग्य हैं, यों साधु को नोवए- नहीं बोलना चाहिए, तथैव ये फल वेलोइयाई-ग्रहण कालोचित हैं, तोड़ने लायक हैं टालाई-गुठलीरहित कोमल हैं वेहिमाइं-दो भाग करने योग्य हैं त्ति-इस प्रकार भी नोवए-नहीं कहना चाहिए। __ मूलार्थ- साधु को 'ये फल परिपक्क हैं, पका कर खाने के योग्य हैं, लुंचन करने योग्य हैं, सकोमल हैं और दो भागों में फाँक करने योग्य हैं' इस प्रकार नहीं कहना चाहिए। टीका-इस गाथा में फलों के विषय में निषेधात्मक शब्दों का उल्लेख किया गया है। ये आम्र आदि फल सब प्रकार से पके हुए हैं, ये फल गर्तप्रक्षेप' कोद्रव के पलालादि द्वारा पका कर खाने के योग्य हैं, ये फल सब प्रकार से पक गए हैं, इस लिए अब इनके लुंचन एवं छेदन का समय आ गया है, ये फल अभी तक अबद्धास्थि होने से अत्यन्त सकोमल हैं तथा ये फल बद्धास्थिक होने से दो भागों में विभाजित करने योग्य हैं, इत्यादि सावध भाषा प्रज्ञावान् साधु कदापि भाषण न करे। यदि कोई ऐसा कहे कि इस में दोष ही क्या है ? तो इस शङ्का के उत्तर में कहा जाता है, कि, दोष क्यों नहीं ? इस भाषण से जीवों का विनाश होता है, यही महादोष है। साधु के मुख से 'इस फल को इस प्रकार खाना चाहिए' यह सुन कर गृहस्थ अवश्य ही इस कार्य में प्रवृत्ति करेगा, जिस से फिर अधिकरण आदि दोष स्वयं सिद्ध हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकार, फलान्वित वृक्षों के विषय में प्रयोजनवश कथन के योग्य शब्दों का उल्लेख करते हैं : असंथड़ा इमे अंबा, बहुनिव्वडिमा फला। वइज्ज बहुसंभूआ, भूअरूवत्ति व पुणो॥३३॥ असमर्था इमे आम्राः, बहुनिवर्तितफलाः / - वदेत् बहुसंभूताः, भूतरूपा इति वा पुनः॥३३॥ 1 यथा अपक्व आम्रादि फलों को पुराल आदि घास के पुंज में दबाकर पकाते हैं। सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [287