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________________ पदार्थान्वयः- इमे- ये प्रत्यक्ष अंबा-आम्र-वृक्ष असंथड़ा-फल भार सहने में असमर्थ हैं बहुनिव्वडिमा फला-बहुत बद्धास्थिक-फल वाले हैं तथा बहु-संभूआ-बहुत परिपक्व फल वाले हैं वा पुणो-अथवा भूअरूवत्ति-भूतरूप अबद्धास्थि फल वाले हैं, इस प्रकार वइज-कहे। मूलार्थ-काम पड़ने पर आम्रादि वृक्षों के विषय में इस प्रकार बोलना चाहिए कि, ये आम्र वृक्ष फल भार सहने में असमर्थ हैं, इनमें गुठलियों वाले फल बहुत अधिक लगे हुए हैं, इनके बहुत से फल पूर्णतया पक्क गए हैं तथा इन में ऐसे भी फल बहुत हैं जिन में अभी तक गुठली नहीं पड़ी है। टीका- वनादि स्थानों में गया हुआ साधु, जब पुष्प-फलान्वित आम्रादि वृक्षों को देखे, तो उसे पूर्व सूत्रोक्त स्थानों पर निम्र रीति से बोलना चाहिए। यथा 1. 'ये फल पूर्णतया पक्क गए हैं'। इस के स्थान पर 'ये आम्र आदि वृक्ष फल-भार सहने में असमर्थ हो रहे हैं।' 2. 'ये फल पकाकर खाने योग्य हैं' इसके स्थान पर 'इन वृक्षों पर पकी हुई गुठली वाले फल बहुत अधिक लगे हुए हैं' 3. 'ये फल तोड़ने योग्य हैं' इस के स्थान पर 'ये फल परिपक्व हो गए हैं' और 4. 'ये फल अतीव कोमल हैं' इस के स्थान पर 'ये फल अभी बँधी हुई गुठलियों वाले नहीं हुए हैं' इत्यादि उक्त प्रकार से कथन करना श्रेयस्कर है। तात्पर्य इतना ही है कि, वर्तमान में वृक्षों की जो अवस्था हो, उसी प्रकार उन्हें कहना चाहिए। किन्तु सावध भाषा, जिसके बोलने से आत्मा पाप कर्मों से लिप्त हो जाती हो, वह नहीं भाषण करनी चाहिए। यदि ऐसे कहा जाए कि, सूत्र में केवल आम्र वृक्ष का ही क्यों ग्रहण किया है, अन्य वृक्ष क्यों नहीं ग्रहण किए तो इस शङ्का के उत्तर में कहा जाता है कि, आम्र वृक्ष की प्रधानता सिद्ध करने के लिए तथा आम के फलों को देख कर प्रायः लोग इसी प्रकार कहा करते हैं इसलिए आम्र का उल्लेख किया है। अतः जिस प्रकार का यहाँ आम्र-वृक्ष का वर्णन किया है, ठीक इसी प्रकार अन्य सब फल वाले वृक्षों के विषय में भी जान लेना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, शाली आदि धान्यों के विषय में कहते हैं :तहेवोसहिओ पक्काओ, नीलिआओ छवीइ अ। लाइमा भजिमाउत्ति, पिहुखज्जत्ति नो वए॥३४॥ तथैवौषधयः पक्काः, नीलिकाश्छवयश्च / लवनवत्यो भर्जनवत्य इति, पृथुक भक्ष्या इति नो वदेत्॥३४॥ पदार्थान्वयः- तहेव- इसी प्रकार अोसहिओ- ये ओषधियाँ पक्काओ- पकी हुई हैं अ- तथा नीलिआओ छवीइ-ये चौला-प्रमुख की फलियाँ नीली छवि वाली हैं तथा लाइमा–ये धान्य लवन करने योग्य हैं तथा भज्जिमाउत्ति-ये भूनने योग्य हैं तथा पिहुखजति-ये अग्नि में सेक कर (अर्द्धपक्व) खाने योग्य हैं इस प्रकार साधु नो वए-न कहे। मूलार्थ-इसी प्रकार विचारशील साधु, क्षेत्रवर्ती धान्यों के विषय में ये धान्य पक गए हैं, ये नीली छाल वाले हैं, ये काटने योग्य हैं, ये भूनने योग्य हैं, ये अग्नि में सेक कर (अर्द्धपक्क) खाने योग्य हैं, इत्यादि सावध भाषण न करे। 288] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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