________________ की नाभि के लिए, सुनार आदि की ऐरण रखने की गणिडका के लिए सर्वथा योग्य हैं' इस प्रकार न कहे। .. टीका-जिस प्रकार पूर्व सूत्र में निषेध किया जा चुका है, उसी प्रकार 'इस वृक्ष के काष्ठ से पीठ (चौकी), चंगवेर (चंगेरी काष्ठ पात्र), लाङ्गल (हल), मयिक 'जो बीज बोने के बाद बीजों को ढाँपने के लिए खेत में चलाया जाता है' वह मड़ा या सुहागा यंत्र-यष्टी (कोल्हू आदि यंत्रों की लाठ) नाभि (गाड़ी आदि के चक्र पहिये की नाभि-धुरी) गण्डिका (सुनार आदि की ऐरण रखने का एक लकड़ी का ढाँचा) जिस में ऐरण मजबूत होकर टिक जाती है ऐसी अधिकरणी आदि वस्तुएँ बहुत ही अच्छी बन सकती हैं' इत्यादि कथन न करे। कारण यह है कि, आत्म-रक्षा तथा संयम-रक्षा तभी हो सकती है, जब कि भाषण विवेक-पूर्ण हो। बिना विवेक के साधुत्व किसी भी प्रकार से नहीं स्थिर हो सकता। 'विवेक-भ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।' प्रस्तुत सूत्र में चतुर्थी-विभक्ति के स्थान में जो सर्वत्र 'पीढए' आदि प्रथमा विभक्ति का निर्देश किया है, वह प्राकृत भाषा के कारण से है। अतः पाठक, आर्ष भाषा में विभक्ति व्यत्यय के दोष का भ्रम न करें। उत्थानिका- अब फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हुए उपसंहारात्मक कथन करते हैं :आसणं सयणं जाणं, हुजा वा किंचुवस्सए। भूओवघाइणिं भासं, नेवं भासिज्ज पन्नवं // 29 // आसनं शयनं यानं, भवेद्वा किञ्चिदुपाश्रये। भूतोपघातिनी भाषां, नैवं भाषेत प्रज्ञावान्॥२९॥ पदार्थान्वयः- इसी प्रकार इस वृक्ष के आसणं-आसन सयणं-शय्या जाणं-यान रथादि वाअथवा किंच-अन्य कोई वस्तु उवस्सए-उपाश्रय के योग्य हुज्जा हो सकती है एवं-ऐसी भूओवघाइणिंप्राणि संहारकारिणी भासं– भाषा को पन्नवं-प्रज्ञा संपन्न साधु न भासिज-कदापि न बोले। मूलार्थ- भाषा विवेकी साधु, किसी भी अवस्था में 'यह वृक्ष बहुत अच्छा है। अतः इस की आसन, शयन, यान अथवा उपाश्रय योग्य अन्य कोई द्वार कपाटादि वस्तु बहुत सुन्दर बन सकती है' इस प्रकार की भूतोपघातिनी भाषा का प्रयोग न करे। . टीका- पूर्व की भाँति ही वनादि स्थानों में गया हुआ आशु-प्रज्ञ साधु, किसी महाकाय वृक्ष को देख कर इस प्रकार की भाषा का प्रयोग न करे कि इस वृक्ष के तो आसन्दी आदि आसन, पर्यंक, खाट आदि शयन, बहल, रथ आदि यान सवारी तथा उपाश्रय में काम आने लायक किवाड़, पाटिया आदि बहुत ही मजबूत एवं साफ सुन्दर वस्तुएँ बन सकती हैं। ऐसा न कहने का कारण यह है कि, ऐसा कहने से वनस्वामी व्यन्तरादि देव के कुपित हो जाने की अथवा वृक्ष को सलक्षण जान कर किसी के द्वारा वृक्ष के छेदन हो जाने की एवं अनियमित भाषण से धर्म की लघुता हो जाने की आशङ्का रहती है। दोषाशंकित भाषण करना शास्रकार द्वारा साधु को सर्वथा निषिद्ध है। . - उत्थानिका- अब 'यदि वृक्षों के विषय में इस प्रकार नहीं कथन करना है, तो फिर किस प्रकार कथन करना चाहिए ?' इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महाराज देते हैं : सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [285