________________ इस कथन से यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि, जिस में जो गुण हो उस गुण की अपेक्षा से.ही उसे सम्बोधित करना चाहिए और उस को हानि पहुँचाने वाले शब्दों का उच्चारण कभी नहीं करना चाहिए। उत्थानिका- फिर इसी विषय को अन्य उदाहरणों से स्पष्ट किया जाता है :तहेव गाओ दुग्झाओ, दम्मा गोरहगत्ति अ। . वाहिमा रहजोगित्ति नेवं भासिज पनवं // 24 // तथैव गावो दोह्याः, दम्या गोरथका इति च। वाह्या रथयोग्या इति, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् // 24 // पदार्थान्वयः-तहेव-इसी प्रकार गाओ-ये गायें दुज्झानो-दोहने योग्य हैं अ-तथा गोरहगाये वृषभ दम्मा-दमन करने योग्य हैं वाहिमात्ति-भार बहने के योग्य है, तथा रहजोगित्ति-रथ में जोड़ने योग्य हैं एवं-ऐसा पन्नवं-प्रज्ञावान् साधु न भासिज-भाषण न करे। मूलार्थ- पूर्व की भाँति ही बुद्धिमान् साधु को ये गायें दोहने योग्य हैं तथा ये बछड़े दमन करने योग्य हैं, भार खींचने योग्य हैं और रथ में जोतने योग्य हैं इत्यादि पर पीडाकारी वचन कभी नहीं बोलने चाहिए। टीका- इस गाथा में भी भाषा समिति के विषय में कथन किया गया है। यथा ये गायें दोहने योग्य हैं, अर्थात् इनके दोहने का (दूध निकालने का) समय हो गया है तथा ये छोटे बैल दमन करने योग्य हैं अर्थात् वध करने योग्य हो गए हैं तथा ये नवयुवा बैल रथ के योग्य हैं अर्थात् - सुन्दर रथ में लगाने योग्य हैं तथा ये बैल पूर्ण परिपुष्ट हैं अतः अधिक से अधिक बोझ खींचने योग्य हो गए हैं। इस प्रकार हिताहित-विचार-विचक्षण साधु, कदापि भाषण न करे। क्योंकि, इस अयोग्य भाषा से अधिकरण, लाघव आदि दुःखद दोष उत्पन्न होते हैं। सूत्र में जो यह कथन है, वह केवल सूचना मात्र है। अतः अपनी प्रतिभा द्वारा इसका विस्तार वक्ता को स्वयं ही या गुरु-शिक्षण से कर लेना चाहिए अर्थात् साधु को उन सभी शब्दों का ज्ञान कर लेना चाहिए जिन शब्दों से दूसरे प्राणियों को किसी प्रकार की पीड़ा होती हो। उत्थानिका- अब सूत्रकार, यह कहते हैं कि, 'यदि प्रयोजन वश बोलना ही हो' तो किस प्रकार से बोलना चाहिए ? जुवं गवित्ति णं बूआ, धेणुं रसदयित्त / रहस्से महल्लए वावि, वए संवहणि त्ति अ॥२५॥ युवा गौरित्येनं ब्रूयात्, धेनुं रसदा इति च। ह्रस्वं महल्लकं वाऽपि, वदेत् संवहनमिति च॥२५॥ पदार्थान्वयः- णं-दमन योग्य बैल को जुवंगवित्ति-यह बैल युवा है, अ-तथा धेj-दोहन योग्य गाय को रसदयत्ति- यह गाय दुग्धदा है अ-तथा रहस्से- छोटे बैल को लघु वृषभ वा- तथा 282] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्