________________ मूलार्थ- दयासिन्धु साधु मनुष्य, पशु, पक्षी एवं सर्प आदि को जब कभी देखकर, भूल कर भी यह न कहे कि यह मांस से स्थूल है, यह विशेष मेदा संपन्न है। अतः यह वध करने योग्य है एवं यह पकाने योग्य है। टीका-बुद्धिमान् साधु को योग्य है कि, वह सदा सावध भाषा के भाषण से सावधान रहने का विशेष ध्यान रखे। जैसे मनुष्य, पशु, पक्षी और सर्प आदि को देख कर साधु को यह नहीं कहना चाहिए कि, यह अमुक जीव मांस की अधिकता के कारण विशेष-स्थूल-वपु हो रहा है तथा बहुत अधिक मेदा संपन्न (चर्बी वाला) है। अतएव अब यह जीव नि:संकोच वध करने तथा पका कर भक्षण करने योग्य है। सूत्रकार ने सूत्र में जो 'वए' यह 'वद्' धातु का प्रयोग किया है, इससे यह नहीं समझना कि, 'सूत्रकार ने इस प्रकार केवल बोलने का ही निषेध किया है, अन्य मनोभाव प्रदर्शन के संकेत आदि साधन, इस निषेध से बहिर्भूत हैं।' किन्तु यहाँ वद् धातु उपलक्षण है, अतः इस प्रकार वध आदि के अन्य संकेतों का भी स्पष्टतः निषेध है। साधु का प्रत्येक महाव्रत सम्बन्धी नियम, तीन करण और तीन योगों के सुदृढ़ प्राकार से परिरक्षित होना चाहिए। उपर्युक्त पद्धति से नहीं बोलने का कारण यह है कि, इस प्रकार बोलने से प्रथम तो सभ्य-संसार में साधु की अप्रतीति (निन्दा) होती है। दूसरे उन जीवों को जिनके विषय में कहा जाता है साधु के कथन से प्राण नाश आदि की विभीषिकापूर्ण आपत्ति होने पर साधु का प्रथम महाव्रत नष्ट हो जाता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, यह कथन करते हैं कि यदि प्रसंगवश बोलना ही हो, तो किस प्रकार बोलना चाहिए ? . परिवूढत्ति णं बूआ, बूआ उवचिअत्ति अ। संजाए पीणिए वावि, महाकायत्ति आलवे॥२३॥ परिवृद्ध इत्येनं ब्रूयात्, ब्रूयादुपचित इति च। संजातः प्रीणितो वाऽपि, महाकाय इति आलपेत्॥२३॥ पदार्थान्वयः-णं-पूर्वोक्त पशु, पक्षी आदि को परिवूढत्ति-यह सभी प्रकार से अतीव वृद्ध है, ऐसा बूआ-कहे अ-तथा उवचिअत्ति-यह मांस से उपचित है, ऐसा बूआ-कहे वावि-तथा इसी प्रकार संजाए-यह संजात है पीणिए-यह प्रीणित है, (तृप्त है) महाकायत्ति-यह महाकाय है ऐसा आलवेकहे। मूलार्थ- पूर्वोक्त पशु, पक्षी आदि के विषय में, कारण-वश बोलना ही पड़े तो यह सब प्रकार से वृद्ध है, यह मांस से परिपुष्ट है, यह संजात है, यह प्रीणित है, यह महाकाय है इस प्रकार सम्यक्तया विचार कर बोलना चाहिए। टीका- यदि कभी कारणवशात् साधु को बोलना ही पड़े, तो अमुक जीव सभी प्रकार से वृद्ध है, मांसोपचित है, परिपुष्ट है, सतेज है और सचिक्कण है तथा महान् हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला है इत्यादि सर्वथा निरवद्य भाषा से बोलना चाहिए। परन्तु जिस भाषा से अन्य आत्माओं को किसी प्रकार का दुःख उत्पन्न होता हो तथा दुःख उत्पन्न होने की संभावना हो; वह भाषा कदापि भाषण नहीं करनी चाहिए। सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [281