________________ एस-यह इत्थी-स्त्री है अथवा अयं पुमं-यह पुरुष है णं-यह निश्चयात्मक न विजाणिज्जा-न जान ले ताव-तब तक साधु को जाइत्ति-जाति के आश्रित होकर ही आलवे-बोलना चाहिए। मूलार्थ-दूरवर्ती पंचेन्द्रिय प्राणियों के विषय में, जब तक यह स्त्री है अथवा यह पुरुष है इस प्रकार लिङ्ग विनिश्चय न हो जाए, तब तक भाषा विवेकी साधु को केवल जाति का आश्रयण करके ही बोलना चाहिए। ___टीका- मनुष्य के विषय में विस्तृत वर्णन किया जा चुका है। अब सूत्रकार पशु जाति के विषय में विशद वर्णन करते हैं। जैसे कि, दूरस्थित गौ एवं अश्व आदि पशुओं को देख कर, जब तक यह स्त्री है या पुरुष है इस प्रकार लिङ्ग सम्बन्धी निर्णय न किया जाए, तब तक साधु को किसी लिङ्ग के आश्रित हो कर कुछ भी नहीं कहना चाहिए अर्थात् यह गाय है, यह घोड़ा है, यह घोड़ी है; इस प्रकार के निर्णय रूप से साधु को नहीं बोलना चाहिए। यदि कभी प्रसंगवश स्वयं किसी से पूछे या अन्य कोई अपने से पूछे तो, जाति का आश्रय ले कर यह गो जाति है, यह अश्वजाति है या यह महिष जाति है; इस प्रकार चतुरता से बोलना उचित है। क्योंकि लिङ्ग व्यत्यय होने से अपने को तो मृषावाद के दूषण की और गोपाल आदि पशु पालक लोगों को अप्रतीति के उत्पन्न होने की निश्चित संभावना है। यदि ऐसे कहा जाए कि, जब लिङ्ग व्यत्यय होने से मृषावाद के दूषण की संभावना है, तो फिर बहुत से कीड़ी मकोड़ा आदि शब्द भी लिङ्ग व्यत्यय से बोले जाते हैं, उनके विषय में क्या समाधान है ? तब उत्तर में कहा जाता है कि, जन-पद सत्य अथवा व्यवहार सत्य आदि के आश्रित हो कर ही ये उक्त कीड़ी मकोड़ा आदि शब्द उच्चारण किए जाते हैं। अतएव इन शब्दों के उच्चारण से मुनिराजों को किसी प्रकार का दोष नहीं लगता है। उत्थानिका-अब सूत्रकार, दूसरे प्रकार से वाक्य-शुद्धि-सम्बन्धी विषय का वर्णन करते हैं :तहेव माणुसं पसुं, पक्खिं वावि सरीसवं। थूले पमेइले वज्झे, पायमित्ति अ नो वए॥२२॥ तथैव मानुषं पशुं, पक्षिणं वाऽपि सरीसृपम्। स्थूलः प्रमेदुरः वध्यः, पाक्य इति च नो वदेत्॥२२॥ पदार्थान्वयः- तहेव-इसी प्रकार दयाप्रेमी, साधु माणुसं-मनुष्यों को पसुं-पशु को पक्खिपक्षी को वा-तथा सरीसवंवि-सर्प आदि को देख कर थूले–यह स्थूल है पमेइले- यह विशेष मेदा वाला है, अतः वझे-यह वध के योग्य है अ-तथा पायमित्ति-यह-पकाने योग्य है ऐसा नो वएकदापि न बोले। 1 प्रश्रकार का स्पष्ट आशय यह है कि, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय आदि जीवों को जैन शास्त्रकार जब केवल एक नपुंसक लिङ्ग ही मानते हैं, तो फिर आप जैन साधु मिट्टी, पत्थर एवं कीड़ी-कीड़ा आदि आम तौर से स्त्रीलिङ्ग शब्द क्यों बोलते हैं ? क्या यह लिङ्ग व्यत्यय नहीं है ? क्या इस लिङ्ग व्यत्यय से मृषावाद का दूषण नहीं लगता?-संपादक। __2 कई आचार्य 'पाक्य' शब्द का अर्थ 'काल प्राप्त' भी कहते हैं- लेखक। .. 280] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्