________________ की एक आँख जाती रही, तब उसको सम्बोधन करते समय ओ काने ! इस प्रकार कहना अयोग्य है। क्योंकि, इस सम्बोधन से उसका हृदय बहुत दुःख मानता है और वह अपने मन में अत्याधिक लज्जित होता है। इसी प्रकार नपुंसक को, हे नपुंसक ! रोगी को, हे रोगी ! चोर को, हे चोर ? इत्यादि दुर्वचन भी नहीं कहने चाहिए। जो मुनि बिना विचारे ऐसी पर पीड़ा कारी कठोरतम भाषा का प्रयोग करते हैं; उन्हें अप्रीति, लज्जा-नाश, स्थिररोग और बुद्धि की विराधना आदि अनेक प्रकार के दोष लगते हैं। जिससे मुनि-संयम का अच्छी तरह पालन न होने के कारण प्रतिज्ञा भ्रष्ट हो जाता है। उत्थानिका-पुनरपि इसी विषय का स्पष्टीकरण किया जाता है :एएणन्नेण अटेणं, परो जेणुवहम्मइ। आयारभावदोसन्नू, न तं भासिज्जं पन्नवं // 13 // एतेन अन्येन अर्थेन, परो येनोपहन्यते। आचारभावदोषंज्ञः , न तं भाषेत प्रज्ञावान्॥१३॥ पदार्थान्वयः- एएण-इस अद्वेणं-अर्थ से अथवा अन्नेण-अन्य जेण-जिस अर्थ से परोदूसरा प्राणी उवहम्मइ-पीड़ित होता है तं- उस अर्थ को आयारभावदोसन्नू-आचार भाव के दोषों को जानने वाला पन्नवं-प्रज्ञावान् साधु, कदापि न भासिज्ज-भाषण न करे। मूलार्थ- आचार-भाव के दोषों को जानने वाला प्रज्ञावान् मुनि, पूर्वोक्त अर्थों से अथवा अन्य जिन अर्थों से, किसी अन्य प्राणी को दुःख पहुँचता हो; उन्हें कदापि भाषण न करे। टीका- जो पर्वोक्त शब्द कहे गए हैं. उनके द्वारा तथा अन्य शब्दों के द्वारा जिनके सुनने से अन्य सुनने वाले व्यक्ति को व्यथा होती है, तो आचार भाव के दोषों को जानने वाला हिताहित विचारक मुनि उन्हें भूल कर भी कभी भाषण न करे। कारण यह है कि, हृदय में चुभने वाले वचनों के बोलने से अन्य आत्मा का हनन और अपनी गम्भीरता का नाश होता है, जिससे फिर कोई व्यक्ति साधु का विश्वास नहीं करता। इसलिए भाषण करते समय साधु को प्रत्येक बात पहले खूब विचार लेनी चाहिए, फिर मुख से बोलनी चाहिए तथा जो सूत्रकार ने 'आचारभावदोषज्ञ' और 'प्रज्ञावान्' ये दो विशेषण साधु के दिए हैं वे साधु की गम्भीरता और दक्षता के सूचनार्थ हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकार, फिर भी पूर्वोक्त विषय के उपलक्ष में ही कहते तहेव होले गोलित्ति, साणे वा वसुलित्ति अ। दमए दुहए वावि, नेवं भासिजं पनवं // 14 // तथैव होलः गोल इति, श्वा वा वसुल इति च। द्रमको दुर्भगश्चाऽपि, नैवं भाषेत प्रज्ञावान्॥१४॥ सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [275