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________________ पदार्थान्वयः- अइअंमि कालंमि-अतीत काल में अ-और पच्चुप्पण्णमणागए-वर्तमान काल में तथा भविष्यकाल में जत्थ-जिस पदार्थ के विषय में संका-शंका भवे-हो तु-तो तं-उस पदार्थ के विषय में एवमेअंति-यह इसी प्रकार है ऐसा नोवए-न बोले। मूलार्थ- भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यत्काल में जिस पदार्थ के विषय में यदि कोई शंका हो तो, उसके विषय में यह इसी प्रकार है' ऐसा न कहे। टीका-भूतकाल, वर्तमानकाल, तथा भविष्यत्काल से सम्बन्ध रखने वाले पदार्थों के विषय में यदि कुछ शङ्का हो तो, उन के विषय में साधु को निश्चयात्मक भाषण नहीं करना चाहिए। क्योंकि शङ्का-युक्त पदार्थों के लिए निश्चयात्मक भाषण करने से साधारण जनता के मन में शङ्का उत्पन्न हुए बिना कभी नहीं रहती। जिसका अन्तिम परिणाम यह निकलता है कि, बहुत से लोग शुद्ध सम्यग्दर्शन से पतित हो जाते हैं और जब दर्शन के विषय में शङ्का उत्पन्न हो गई तो फिर शुद्ध-चारित्र का पालन करना यदि असंभव नहीं, तो कठिन अवश्यमेवं हो जाएगा। यदि यहाँ पर यह कहा जाए कि, शङ्कायुक्त भाषा का निषेध तो प्रथम ही किया जा चुका है, पुनः द्वितीय बार इस विषय का क्यों कथन किया गया है ? तो उत्तर में कहना है कि, विशेष रूप से शङ्कित भाषा के भाषण का निषेध बतलाने के लिए ही यह पूर्वोक्त विषय का पुनः कथन किया गया है। अतः यहाँ पुनरूक्ति दोष नहीं है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, निःशङ्कित भाषा में कथन करने के विषय में कहते हैं : अइअंमि अ कालंमि, पच्चुप्पण्णमणागए। निस्संकिअं भवे जं नु, एवमेअंति निदिसे // 10 // अतीते . च काले, प्रत्युत्पन्नेऽनागते / निशंकित भवेत् यत्तु, एवमेतदिति निर्दिशेत्॥१०॥ पदार्थान्वयः-अइअंमिकालंमि-अतीतकाल सम्बन्धी अ-तथा पच्चुप्पण्णमणागए-वर्तमान काल और अनागत काल संबंधी जं-जो पदार्थ निस्संकिग्रं-निःशङ्कित भवे-हो तु-तो उस पदार्थ के विषय में एवमेअंति-यह पदार्थ इसी प्रकार है ऐसा निहिसे-कह दे। मूलार्थ- गतकाल, वर्तमानकाल तथा आगामी काल सम्बन्धी पदार्थ-जात यदि निःशंकित हो (सन्देह रहित हो) तो साधु उस पदार्थ को 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार निश्चयात्मक कह सकता है। टीका- इस गाथा में भाषण करने का उपदेश किया गया है। जैसे कि, जिस पदार्थ के विषय में किसी भी प्रकार की शङ्का नहीं रही हो, जो तीनों कालों में यथार्थ भाव से जान लिया गया हो, उस पदार्थ के विषय में साधु, निश्चयात्मक भाषण कर सकता है कि, 'यह पदार्थ इसी प्रकार का है'। सत्रकार के कहने का यह आशय है कि. साध को सर्वदा बोलते समय प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम प्रमाण का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि जिस प्रमाण के आश्रित होकर जो कहा जाता है वह उसी प्रमाण के विषय में निश्चयात्मक है। साधु को सदा हितकारी और परिमित ही बोलना चाहिए। मुख में आया हुआ अप्रासंगिक नहीं कहना चाहिए, इससे साधु का गौरव नष्ट होता है। सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [273
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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