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________________ भाषण करनी चाहिए। क्योंकि जिस भाषा के भाषण से साधु का ध्येय जो मोक्ष है, वही नष्ट होता है तो फिर साधु को ऐसी भाषाएँ भाषण करके क्या लाभ है ? इसलिए इनका भाषण करना सभी की दृष्टि से अनुचित है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, मृषा-भाषण से उत्पन्न होने वाले दोषों का वर्णन करते हैं :वितहं पि तहामुत्तिं, जं गिरं भासए नरो। तम्हा सो पुट्ठो पावेण, किं पुण जो मुसंवए॥५॥ वितथामपि तथा मूर्ति, यां गिरं भाषते नरः। तस्मात् सः स्पृष्टः पापेन, किं पुनर्यो मृषां वदेत्॥५॥ पदार्थान्वयः-नरो-जो मनुष्य तहामुत्तिं-सत्य वस्तु के आकार पर स्थित हुए वितहंपि-असत्य पदार्थ को भी जं-जिस गिरं-सत्य रूप भाषा में भासए-भाषण करता है तम्हा-इससे सो-वह वक्ता पावेण-पाप कर्म से पुट्ठो-स्पृष्ट हो जाता है तो फिर जो-जो पुरुष मुसं-केवल मृषाभाषा का वएभाषण करता है किंपुण-उसके विषय में क्या कहा जाए ? अर्थात् उसके पाप का तो कुछ परिमाण ही नहीं। मूलार्थ- जो मनुष्य सत्य पदार्थ की आकृति के समान आकृति वाले असत्य पदार्थ को भी सत्य पदार्थ कहता है, वह भी जब भीषण पाप कर्म का बंध करता है, तो फिर जो केवल असत्य ही बोलते हैं, उनके विषय में कहना ही क्या है। टीका- इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि जो असत्य वस्तु, आकृति से सत्य वस्तु के समान भासती है, साधु उस को सत्य का स्वरूप देकर कथन न करे। जैसे कि, किसी पुरुष ने स्त्री का वेष धारण किया हुआ है, तो उस को साधु यह न कहे कि, वह स्त्री आती है, यह स्त्री गाती है। क्योंकि इस प्रकार बोलने से पाप कर्म का बंध होता है, फिर जो केवल असत्य ही बोलते हैं उनके विषय में तो कहना ही क्या है ? अब यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि, यदि उस असत्य को सत्य रूप से नहीं कहना तो फिर किस प्रकार से कहना चाहिए ? इसके उत्तर में कहा जाता है कि, जब तक स्त्री वा पुरुष का भली भाँति निर्णय नहीं हो जाता, तब तक स्त्री का रूप या वेष तथा पुरुष का रूप या वेष ही कहना चाहिए। इस सूत्र से उन महापुरुषों को कुछ समझना चाहिए,जो सरासर जड़ पदार्थों को चैतन्य रूप से देखते हैं। देखते ही नहीं, बल्कि जो बरताव एक चैतन्य के साथ किया जाता है, वह बरताव (व्यवहार) उनके साथ करते हैं। उत्थानिका-अब सूत्रकार, युग्म सूत्र द्वारा निश्चयकारिणी भाषा में बोलने का निषेध करते हैं :तम्हा गच्छामो वक्खामो, अमुगं वा णे भविस्सइ। अहं वा णं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सइ॥६॥ एवमाइउ जा भासा, एसकालंमि संकिया। . संपयाइअमटे वा, तंपि धीरो विवज्जए॥७॥ यु० 270] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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