________________ टीका-बुद्धिमान् साधु का कर्तव्य है कि, वह उन्हीं असत्यामृषा भाषा (व्यवहार भाषा) और सत्य-भाषा को बोले, जो पाप से रहित विशुद्ध हो, कर्कशता-रहित-मधुर हो, संशय रहित-सुस्पष्ट हो। क्योंकि, जो भाषा पाप-कारिणी कर्कश है, उससे स्वप्न में भी कल्याण नहीं हो सकता। वह सत्य ही कैसा जो पाप पङ्क से सना हुआ और कर्कशता की अग्नि से जला होने के कारण झूठ का (प्रवर्तक) बना हुआ है। ऐसा सत्य शान्ति के स्थान में अशान्ति का विधायक है। इसी प्रकार संशयात्मक भाषा भी निन्दित है। भला जिस भाषा से स्वयं वक्ता ही भ्रम में पड़ा हुआ है, उससे श्रोता किस प्रकार (संशय रहित) हो सकते हैं। साधु की भाषा ऐसी सीधी, साधारण और सर्वथा स्पष्ट होनी चाहिए, जिसे साधारण से साधारण बुद्धि वाला भी बिना किसी प्रयास के समझ सके और तदनुसार कार्य में प्रवृत्त हो सके। बोलते समय भी एक बात और ध्यान में रखने योग्य है। वह यह है कि, जो बोले, वह पहले विचार करके ही बोले। बिना विचारे कभी भी कुछ न बोले। विचार-शून्य वचन कभी-कभी महान् अनर्थकारी हो जाता है। हृदय ने विचार की कसौटी से जिसकी जाँच नहीं की वह वचन सारगर्भित नहीं होता है और जो विचार की कसौटी में संघर्षित हो कर पूर्ण समुज्ज्वल होता है, वही वचन संसार को शान्ति के मार्ग पर लाता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, सत्यासत्य-भाषा और मृषा का निषेध करते हैंएअंच अट्ठमनं वा, जं तु नामेइ सासयं। स भासं सच्चमोसं च, तंपि धीरो विवजए॥४॥ एतंचार्थमन्य वा, यस्तु नामयति शाश्वतम्। स भाषां सत्यामृषांच, तामपि धीरो विवर्जयेत्॥४॥ पदार्थान्वयः- स- वह धीरो- धैर्यवान्-साधु एग्रं- पूर्वोक्त सावद्य तथा कर्कश-भाषारूप अटुं- अर्थ को वा- अथवा अन्नंच- इसी प्रकार के अन्य अर्थ को आश्रित करके जंतु- जो अर्थ निश्चय ही सासयं- शाश्वत स्थान मोक्ष को नामेइ- प्रतिकूल करता है। तो फिर यह चाहे सच्चमोसंभासं- सत्यासत्य भाषा रूंप हो तथा च- च शब्द से अन्य भी सत्य भाषा रूप हो तंपि- उसको भी विवज्जए- विशेष रूप से वर्ज दे। . - मूलार्थ- विचार-शील साधु, पूर्वोक्त सावद्य और कर्कश भाषाओं का तथा इसी प्रकार की अन्य भाषाओं का भी 'जो बोली हुई परम पुरुषार्थ मोक्ष की विघातक होती हैं ' चाहे फिर वे मिश्रभाषा हों या केवल सत्यभाषा हों, विशेष रूप से परित्याग करे। टीका- बुद्धिमान् साधु को योग्य है कि, वह जो भाषाएँ सावध और कर्कश हैं तथा इसी प्रकार की अन्य भाषाएं भी जो कठिन और स्व-विषय से बाधित हैं तथा मोक्ष के अर्थ की विघातक हैं अर्थात् जो शाश्वत सुख का स्थान मोक्ष है, उस स्थान से पराङ्मुख करने वाली हैं, उन्हें कदापि भाषण न करे। चाहे फिर वे सत्य ही क्यों न हों। सूत्र का संक्षिप्त निष्कर्ष यह निकला कि, जो भाषाएँ सावध और कर्कश विषय का प्रतिपादन करने वाली हैं और जिनके भाषण से वक्ता को मोक्ष सुख से पराङ्मुख होना पड़ता है, वे भाषाएँ चाहे फिर सत्य हों, मिश्र हों, या कैसी ही क्यों न हों; साधु को कदापि नहीं सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [269