SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ या च सत्या अवक्तव्या, सत्यामृषा ‘च या मृषा। .. या च बुद्धैरनाचीर्णा, न तां भाषेत प्रज्ञावान्॥२॥ पदार्थान्वयः- जाय-जो भाषा सच्चा-सत्य है परन्तु अवत्तव्वा-सावध होने से बोलने योग्य नहीं है जा-और जो सच्चामोसा-सत्या-मृषा है अ-तथा मुसा-मृषा है य-तथा जा-जो असत्या मृषाभाषा बुद्धेहिं-तीर्थंकर-देवों द्वारा नाइन्ना-अनाचरित है तं-उस भाषा को पन्नवं-प्रज्ञावान् साधु न भासिज-भाषण न करे। मूलार्थ- जो सत्य भाषा सावध होने से अवक्तव्य है तथा जो मिश्र भाषा है अथवा जो केवल मृषाभाषा है अथवा जो पापकारिणी व्यवहार भाषा है, अभिप्राय यह कि, जो-जो भाषाएँ तीर्थंकर देवों ने आचरण नहीं की हैं, उन सभी भाषाओं को प्रज्ञावान् साधु कदापि भाषण न करे। टीका- इस गाथा में भाषाओं के भाषण करने के विषय में प्रतिपादन किया है। जो भाषा सत्य तो अवश्य है, किन्तु उसके द्वारा अनेक जीवों का वध होता है। अतः वह भाषा भी अवक्तव्य है (बोलने योग्य नहीं है)। इसी प्रकार सत्यामृषा मिश्रभाषा, अथ च केवल असत्यभाषा, 'च' शब्द से व्यवहार भाषा भी (जिसके बोलने से पाप कर्म का बंध होता है) सर्वथा अवक्तव्य है। कहने का प्रयोजन यह है कि, बुद्धों ने (तीर्थंकर देवों ने) जिन-जिन भाषाओं का आचरण नहीं किया, उन सभी भाषाओं में प्रज्ञावान् साधु कदापि भाषण न करे। क्योंकि, साधु का मार्ग कल्याण का है। अतः साधु को जिस भाषा के बोलने से पाप कर्म का बंध तथा किसी का अकल्याण होता हो तो उस भाषा में किसी भी अवस्था में भाषण नहीं करना चाहिए। असत्य और मिश्र भाषा तो प्रथम ही विवर्जित है। अवशिष्ट सत्य और व्यवहार भाषा इन दोनों में से भी जो पापकर्म का बंधन करने वाली हो, उसे नहीं बोलना चाहिए। उत्थानिक-अब सूत्रकार, साधु के बोलने योग्य भाषा के विषय में कहते हैं :असच्चमोसं सच्चं च, अणवजमकक्कसं / समुप्पेहमसंदिद्धं , गिरं भासिज्ज पनवं॥३॥ असत्या-मृषां सत्यां च, अनवद्यामकर्कशाम् / समुत्प्रेक्ष्य असंदिग्धां, गिरं भाषेत प्रज्ञावान्॥३॥ पदार्थान्वय :- पनवं-बुद्धिमान् साधु अणवजं-पाप से रहित अकक्कसं- अकर्कश एवं असंदिद्धं-असंदिग्ध असच्चमोसंगिरं-असत्या मृषा-व्यवहार भाषा को च-और सच्चं-सत्य भाषा को समुप्पेहं-अच्छी प्रकार विचार कर भासिज्ज-बोले। मूलार्थ- बुद्धिमान् साधु, व्यवहार भाषा और सत्यभाषा भी वही बोले जो पाप से अदूषित हो, मधुर और असंदिग्ध हो। फिर वह भी हानि-लाभ का पूर्ण विचार करके बोले, बिना विचारे नहीं। 268] हिन्दीभाषाटीकासहितम् सप्तमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy