________________ शुद्ध प्रयोग करना सिक्खे-सीखे और शेष दो-दो अधम भाषाओं को सव्वसो-सर्व प्रकार से न भासिज-भाषण म करे। मूलार्थ-बुद्धिमान् साधु, सत्य आदि चारों भाषाओं के स्वरूप को सम्यक्तया जान कर शुद्ध प्रयोग करने के लिए दो शुद्ध भाषाओं को विनय पूर्वक सीखे और दो अशुद्ध भाषाओं का सर्वथा परित्याग करे। टीका- इस प्रारम्भ की गाथा में भाषा के भेदों का तथा उनमें कितनी उपादेय है और कितनी हेय है, का विशद वर्णन किया गया है। प्रज्ञावान् साधु को सब से प्रथम भाषा के भेदों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। क्योंकि भेदों का ज्ञान हो जाने के पश्चात् ही उपादेय वा हेय रूप भाषाओं के विषय में यथोचित विचार किया जा सकता है, पहले नहीं। भाषा के मुख्यतया सत्य, असत्य, मिश्र, और व्यवहार-ये चार भेद शास्रकारों ने वर्णन किए हैं। 1. सत्यभाषा वह है, जो वस्तु स्थिति का यथार्थ परिबोध हो जाने के बाद विचार पर्वक बोली जाती है। इस भाषा से बोलने वाले वक्ता और सनने वाले श्रोता सभी का कल्याण है। यह अतीव श्रेष्ठ-भाषा है। संसार के सभी श्रेष्ठ पुरुषों को जगत्पूज्य बनाने वाली, जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाने वाली, पूर्ण स्वतंत्रता के आनन्द कारी हिंडोले में झुलाने वाली यही एक सर्व प्रथम भाषा है। 2. असत्यभाषा, वह है, जो वस्तु स्थिति का पूर्ण भान हुए बिना ही क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के कारणों से युक्त अविचार पूर्वक बोली जाती है। यह भाषा बोलने वाले और सुनने वाले सभी का अकल्याण करती है। यह अतीव निकृष्ट भाषा है। इस भाषा के चक्कर में पड़ कर आज तक किसी ने वास्तविक शान्ति नहीं पाई। यह भाषा चिरकाल पर्यन्त संसार सागर के नरक तुल्य रोमाञ्चकारी दु:खमय स्थानों में परिभ्रमण कराने वाली है। 3. मिश्र भाषा, वह है, जिसमें सत्य एवं असत्य दोनों भाषाओं का मिश्रण हो। जैसे कि, किसी को सोते-सोते सूर्य उदय हो जाए और थोड़ी देर बाद उसको कोई आदमी कहे कि, अरे, भले मानुष ! कैसे बेसुध सोया पड़ा है, जरा उठकर तो देख? दोपहर हो गया है। यह भाषा भी असत्य भाषा की सहचरी है, अतः निकृष्ट तथा अग्राह्य है। 4. . व्यवहार भाषा वह है, जो जनता में विशेषकर बोली जाती है जिसका जनता पर अनुचित-प्रभाव नहीं पड़ता है जैसे-पर्वत पर जलती तो अग्नि है, परन्तु कहा जाता है कि, पर्वत जल रहा है। यह भाषा सत्य भाषा की सहचरी होने से ग्राह्य है। ये चार भाषाएँ हैं। इन में से सत्य और व्यवहार भाषा को तो साधु उपयोग पूर्वक सीखे, असत्य और मृषा भाषा को नहीं अर्थात्- साधु को जब कभी बोलने का काम पड़े तो सत्य और व्यवहार भाषा ही बोलनी चाहिए, असत्य और मिश्र भाषा को, 'चाहे कैसा ही जरूरी काम क्यों न बिगड़ता-सुधरता हो' कदापि भाषण न करे। क्योंकि, "विनीयतेऽनेन कर्मेति कृत्वा शिक्षेत जानीयात्' अर्थात्- साधु का उद्देश्य कर्म दूर करने का है। अतः साधु जिन से कर्म दूर किए जा सकें उन भाषाओं के स्वरूप को जान कर केवल उन्हीं का भाषण करे। उत्थानिका-अब सूत्रकार, अनाचरित भाषाओं के त्याग के विषय में कहते हैं :जा य सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा अजा मुसा। जा य बुद्धेहिं नाइन्ना , न तं भासिज पनवं // 2 // सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [267