________________ अह सुवक्क सुद्धी णाम सत्तमं अज्झयणं अथ सुवाक्य-शुद्धिनामकं सप्तमाध्ययनम् उत्थानिका- धर्मार्थ काम कथा (महाचार कथा) नामक छठे अध्ययन में यह वर्णन किया गया है कि, भिक्षार्थ गाँव में गए हुए साधु को यदि, कोई यह पूछे कि आप का आचार-गोचर किस प्रकार का है, तो उस साधु को वहाँ विस्तार से धर्म-कथा का प्रबन्ध नहीं करना चाहिए। बल्कि-यह कहना चाहिए कि, इस विषय में आप उपाश्रय में विराजमान गुरु महाराज से पूछिए। वे आपको . विस्तृत-रूप से स्पष्टतया बतलाएँगे। अब यदि कोई पृच्छक उपाश्रय में ही आकर पूछे तो उसके साथ किस प्रकार निरवद्य (निर्दोष) भाषा में वार्तालाप करना चाहिए, यह इस सातवें अध्ययन में बतलाया जाता है। यही इस अध्ययन का छठे अध्ययन के साथ सम्बन्ध है। इस अध्ययन का नाम 'सुवाक्य-शुद्धि' है। इसमें भाषा शुद्धि का सविस्तार वर्णन किया है। साधु का पद बहुत ऊँचा है। अतः उसे प्रत्येक विषय पर वार्तालाप करते समय भाषा शुद्धि की विशेष आवश्यकता रहती है। बिना भाषा शुद्धि के जाने बातचीत करने में प्रायः अर्थ के स्थान में अनर्थ ही हुआ करता है। अधिक कहने से क्या, हिताहित का विचार करके उपयोग पूर्वक निरवद्य भाषण करना ही श्रेष्ठतर है। इसी में बोलने वाले साधु का और सुनने वाले श्रोता का सभी प्रकार से कल्याण है। अब सूत्रकार, 'इस आदिम गाथा द्वारा भाषा को हेय और उपादेय रूप में विभाजित करते हुए' अध्ययन का प्रारम्भ करते हैं - चउन्हं खलु भासाणं, परिसंक्खाय पन्नवं। दुन्हं तु विणयं सिक्खे, दो न भासिज सव्वसो॥१॥ चतसृणां खलु भाषाणां, परिसंख्याय प्रज्ञावान्। द्वाभ्यां तु विनयं शिक्षेत, द्वे न भाषेत सर्वशः॥१॥. पदार्थान्वयः-पन्नवं-प्रज्ञावान् साधु चउन्हं खलु-सत्य आदि चारों ही भासाणं-भाषाओं के स्वरूप को परिसंक्खाय-सभी प्रकार से जान कर दुन्हंतु-दो उत्तम भाषाओं से ही विणयं-विनय पूर्वक