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________________ कहते हैं, जो मुनि सदा उपशान्त हैं अर्थात् जिनको अपकार करने वाले पर भी कभी क्रोध नहीं आता, जो ममत्व भाव से रहित निष्परिग्रही हैं, अर्थात् द्रव्य परिग्रह सुवर्ण आदि और भाव परिग्रह मिथ्यात्व आदि दोनों प्रकार के परिग्रहों से सर्वथा अलग हैं, जो केवल परलोकोपकारिणी श्रुतविद्या के धनी हैं, जो अपनी श्रुत-विद्या के अतिरिक्त इहलोकोपकारिणी शिल्प आदि कलाओं में प्रवृत्त नहीं हैं, जो परम यशस्वी हैं अर्थात्- 'शुद्ध पारलौकिक यशवन्त' परलोक की शुद्धि करने से जिनका पवित्र यश संसार में छाया हुआ है, जो पाप-पंक की कालिमा से विमुक्त (सर्वथा शुद्ध) हैं और जिस प्रकार शरद्-काल आदि प्रसन्न ऋतुओं में बादल, राहु तथा रजोघात आदि की मलिनता से मुक्त विमल चन्द्रमा प्रकाशवान् होता है, इसी प्रकार जिनकी विमल-आत्मा पाप-मल से रहित विशुद्ध प्रकाशवान् है, ऐसे षट्काय संरक्षक साधु , सर्वथा कर्म (बंधन) मल से रहित हो जाते हैं और शाश्वत स्थान, मोक्ष में जा कर सिद्ध पद प्राप्त करते हैं / यदि कुछ कर्म शेष रह जाते हैं, सर्वथा कर्म (बंधन) मल से रहित नहीं होते हैं, तो वैमानिक-देवों में जाकर महर्द्धिक देव होते हैं / जो उत्तम कर्म करते हैं, उन्हें उत्तम फल अवश्य मिलेगा। अध्ययन समाप्ति की इस गाथा का मननीय (ग्रहण करने लायक) सारांश यह है कि, साधु अपने साध-पद के कर्तव्य का पूर्ण रूप से जैसा चाहिए वैसा ही पाल कैसा ही क्यों न विकट समय हो, परन्तु निज कर्त्तव्य पालन में किसी प्रकार की भी त्रुटि न रहे। जो ऐसे दृढ़व्रती कर्त्तव्य-परायण साधु होते हैं, वे ही अजर अमर मोक्ष-पद प्राप्त करके परमात्मा, परब्रह्म-परमेश्वर बनते हैं। टीकाकार हरिभद्र सुरि ने 'स्वविद्यविद्यानुगता' का अर्थ इस प्रकार किया है। स्वा आत्मीया विद्या स्वविद्या परलोकोपकारिणी केवल श्रुतरूपा, तया स्वविद्यविद्ययानुगता मुक्ता, न पुनः पर विद्यया इहलोकोपकारिणीति। "श्री सुधर्मा स्वामी गणधर अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि, हे शिष्य ! 'श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पवित्र मुखारविन्द से मैंने जैसा अर्थ इस अध्ययन का सुना है, वैसा ही तुझ से कहा है। अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहा।" षष्ठाध्ययनसमाप्त। '.. नोट:- अन्तिम सूत्र में उठाए हुए विषय का उपसंहार तो कर दिया है, किन्तु जो राजा आदि लोग एकत्र हो कर आचार्य जी से प्रश्र पूछते थे, उन के विषय में फिर कोई उल्लेख नहीं किया गया। इससे सिद्ध होता है कि उन के विषय में कोई गाथा छूटी हुई है। जो किसी अन्य प्रति में अवश्य ही होगी। वर्तमान की प्रचलित प्रतियों में उक्त गाथा के न मिलने से उक्त विषय की त्रुटि बहुत ही खटक रही है। अतः आशा है कि, अन्वेषक विद्वान् अवश्य ही किसी प्राचीन शास्त्रभण्डार में इस रही हुई गाथा का अन्वेषण करेंगे - लेखक। षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [265
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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