________________ है। तप-संयम आदि गुणों का यथावत् पालन न होने से आत्मा कृत्य-कृत्य भी नहीं हो सकती और कृत्य-कृत्यता के अभाव में वास्तविक सुख नहीं मिल सकता। उत्थानिका- अब आचार्य, जी महाराज, 'अष्टादश स्थानों के पालन करने वाले साधुओं को शरद्-काल के चन्द्रमा की विमल उपमा के उपमित करते हुए' अपने व्याख्यान को समाप्त करते हैं:सओवसंता अममा अकिंचणा, सविजविजाणुगया जसंसिणो। उउप्पसन्ने विमलेव चंदिमा, सिद्धिं विमाणाइंउवंति ताइणो॥६९॥. त्ति वेमि। इअमहायारकहाणाम छट्ठमज्झयणं सम्मत्तं। सदोपशांताः अममा अकिञ्चना, ___ स्वविद्यविद्यानुगताः . 'यशस्विनः। ऋतु प्रसन्ने चन्द्रमा इव विमलाः, सिद्धिं विमानानि उपयान्ति त्रायिनः॥१९॥ इति ब्रवीमि। इति महाचार कथा नाम षष्ठमध्ययनं समाप्तम्। पदार्थान्वयः-सओवसंता-सदा-उपशान्त अममा-ममत्व रहित अकिंचणा-परिग्रह रहित सविजविजाणुगया-अपनी आध्यत्मिक विद्या के पार-गामी ताइणो-जगज्जीवों की अपनी आत्मा के समान रक्षा करने वाले जसंसिणो-यशस्वी तथा उउप्पसन्ने-ऋतु प्रसन्न होने पर चंदिमावचन्द्रमा के समान विमले-पूर्ण निर्मल साधु सिद्धिं-मुक्ति को उति-प्राप्त करते हैं; अथवा शेष कर्म के होने पर विमाणाइं-वैमानिक गति में उत्पन्न होते हैं त्तिवेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ- जो साधु सदा उपशांत, ममता शून्य, परिग्रह रहित और अपनी धार्मिक-विद्या से युक्त हैं तथा शरद्-कालीन चन्द्रमा के समान विमल (स्वच्छ) हैं; वे जगज्जीव रक्षाव्रती संयमी प्रथम तो मोक्ष में जाते हैं अन्यथा वैमानिक देवों में तो अवश्य ही प्राप्त होते हैं। टीका-यह अध्ययन समाप्ति की गाथा है। इसमें उपसंहार करते हुए आचार्य श्री जी दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम् 264]