________________ उत्थानिका-अब आचार्य, अष्टादश स्थानों को शुद्ध रूप से पालन करने का फल प्रतिपादन करते हैंखवंति अप्पाणममोहदंसिणो, __ तवेरया संजम अजवगुणे। धुणंति पावाइं पुरे कडाइं, नवाइं पावाइंन ते करंति॥१८॥ क्षपयन्त्यात्मानममोहदर्शिनः , .. तपसिरताः संयमाजवगुणे। धुन्वन्ति पापानि पुराकृतानि, - नवानि पापानि न ते कुर्वन्ति // 18 // पदार्थान्वयः- अमोहदंसिणो-व्यामोह रहित तत्त्व को देखने वाले तथा संजमअज्जवगुणे-संयम और आर्जवगुण संयुक्त तवे-तप मे रया-रत रहने वाले ते-वे पूर्वोक्त अष्टादश स्थानों के पालक साधु पुरेकडाइं-पूर्व कृत पावाइं-पापों को धुणंति-क्षय करते हैं तथा नवाडं-आगे नवीन पावाडं-पाप कर्मों का बन्ध न करंति-नहीं करते हैं, किंबहुना इस प्रकार अप्पाणं-जन्म जन्मान्तर के पापों से मलिन हुई अपनी आत्मा को खवंति-सिद्ध करते हैं। मूलार्थ-जो साध, भ्रान्ति रहित यथावत् तत्त्व स्वरूप के जानने वाले हैं, संयम और आर्जव गुणों से युक्त विशुद्ध तप में रत रहने वाले हैं, वे पूर्वकृत कर्मों को क्षय करते हैं और नवीन कर्मों को नहीं बाँधते (करते ) हैं एवं निजात्मा को पूर्ण विशुद्ध बनाकर स्व-स्वरूप में लाते हैं। टीका- इस (गाथा) में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, जो साधु उक्त अष्टादश सूत्रों का सावधानी पूर्वक पालन करते हैं; उन्हें किस फल की प्राप्ति होती है ? जो साधु मोह से रहित होकर पदार्थों के स्वरूप को देखते हैं; वे पदार्थों के स्वरूप को यथार्थ रूप से जान लेते हैं। क्योंकि, जब पक्षपात को तिलांजली (त्यागपत्र) देकर वस्तु के स्वरूप को देखा जाएगा, तभी वस्तु के (शुद्ध) स्वरूप का ज्ञान हो सकेगा। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, अमोहदर्शी कब और कैसे बना जाता है ? उत्तर में सूत्रकार का कहना है कि , जब तप कर्म में संरक्तता धारण की जाएगी, यथा-शक्ति तप कर्म किया जाएगा और जब संयम और आर्जव आदि सद्गुण धारण किए जाएँगे; तभी आत्मा अमोह-दर्शी हो सकती है। उक्त गुणों का अन्तिम परिणाम यह होता है कि, आत्मा, पूर्व-कृत ज्ञानावर्णीय-दर्शना-वर्णीय आदि दुष्कर्मों को क्रमशः क्षय कर देती है तथा आगे के लिए नए कर्मों को नहीं बाँधती है। जब पुराने और नए कर्मों के मैल से आत्मा मक्त हो जाती है. तब वह सदा के लिए पर्ण-विशद्ध बन जाती है। सत्र का संक्षिप्त सार यह है कि, निश्चय से निर्मोही आत्मा ही सर्व-गुणों का धारक हो सकती है, मोही नहीं। क्योंकि, मोह दशा में तप संयम आदि सद्गुणों का यथावत् पालन नहीं हो सकता षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [263