________________ टीका- इस सूत्र में विभूषा करने का फल दिखलाया गया है। शृङ्गार-प्रिय साधु, विभूषा के कारण से इस प्रकार के कठोर एवं चिकने कर्म बाँधता है; जिनके कारण वह दुस्तर (जो आसानी से तैरा न जा सके) तथा घोर (जो अत्यंत भयावह है) ऐसे संसार रूपी समुद्र में डूब जाता है। जहाँ चिर काल तक नाना प्रकार के एक से एक घोर दुःखों को भोगता रहता है। कारण यह है कि, जो साधु, शरीर की विभूषा के ध्यान में लग जाता है, उसे फिर उचितअनुचित का ध्यान नहीं रहता। वह अनुचित से अनुचित क्रियाओं को करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र समुद्यत हो जाता है। इस प्रकार के अकुशलानुबन्ध से अत्यन्त दीर्घ संसार चक्र में परिभ्रमणं करना पड़ता है। अतः विद्वान् साधुओं को इस विभूषा के भयङ्कर रोग से सदा दूर ही रहना चाहिए। इस स्थान में केवल विभूषा का ही निषेध किया गया है, मल आदि की शुद्धि करने का नहीं। अतः मल आदि की शुद्धि के अतिरिक्त जो भी शोभा-निमित्त शरीर की संस्कृति की जाती है, वह सब विभूषा के ही अन्तर्गत हो जाती है। . उत्थानिका- अब आचार्य, बाह्य विभूषा सम्बन्धी अपाय के कथन के अनन्तर, संकल्प सम्बन्धी विभूषा अपाय, के विषय में कहते हैं:विभूसा वत्तिअं चेअं, बुद्धा मन्नंति तारिसं। सावजबहुलं चेअं, नेयं ताईहिं सेविअं॥६७॥ विभूषाप्रत्ययं चेतः, बुद्धाः मन्यन्ते तादृशम्। सावद्यबहुलं चैतद्, नैतत् त्रायिभिः सेवितम्॥६७॥ पदार्थान्वयः- बुद्धा-तीर्थंकर-देव विभूसावत्तिअं-विभूषा निमित्त चेअं-चित्त को तारिसं-रौद्र कर्म के बन्धन का हेतु मन्नंति-मानते हैं च-और एअं-एवंविध चित्त आर्तध्यान से सावज्जबहुलं-सावध बहुल है; अत: ताईहिं-षट्-काय के रक्षक-साधुओं द्वारा नेयंसेविअं-यह आचरण करने लायक नहीं है। मूलार्थ- तीर्थंकर देव, विभूषा प्रत्यय चित्त को कर्म बंधन का कारण मानते हैं। अतः यह चित्त पापमय होने से षट्काय के रक्षक-साधुओं द्वारा आसेवित नहीं है। टीका- इस गाथा में विभूषा के संकल्पों का भी निषेध किया गया है। जिस साधु के चित्त में सदा यही संकल्प उठा करते हैं कि, 'मैं विभूषा द्वारा शरीर को ऐसा सुन्दर बनाऊँ कि लोग देखते ही रह जाएँ।' परन्तु तीर्थंकर देव, साधु के इस प्रकार के चित्त को रौद्र कर्मों के बन्ध का कारण मानते हैं। ऐसे आर्त (ध्यान युक्त) चित्त से साधु , उन महाक्रर्मों का संचय करता है, जो चिरकाल तक संसार-सागर में परिभ्रमण कराते हैं। अतएव षट्काय के संरक्षक साधु, अपने चित्त को सदा पवित्र एवं मङ्गलमय बनाए रखने के लिए, कदापि ऐसे विभूषा सम्बन्धी मलिन विचार नहीं करते। पाठक विचार कर सकते हैं कि, जब सूत्रकार ने विभूषा के संकल्पों का ही इतना अत्यन्त निकृष्ट फल बतलाया है तो फिर जो विभूषा करते हैं, उसके फल की निकृष्टता की तो सीमा ही क्या है ? सत्रकार ने जो विभषा के साथ 'वत्तिअं''प्रत्ययं' पद दिया है, उस का अर्थ कारण होता है। टीकाकार भी इसका यही अर्थ स्वीकार करते हैं, 'यथा च टीका-विभूषा प्रत्ययं विभूषा निमित्तम्।' 262] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्