________________ पदार्थान्वयः- नगिणस्स-नग्न वावि-अथवा मुंडस्स-सिर मुण्डित तथा दीहरोमनहंसिणो-दीर्घ-रोम नखों वाले तथा मेहुणाओ-मैथुन कर्म से उवसंतस्स- सर्वथा उपशान्त साधु को विभूसाइं-विभूषा के किं कारिअं-क्या काम। मूलार्थ- जो साधु मलिन एवं परिमित वस्त्रधारी होने से नग्न है, द्रव्य और भाव से मुण्डित है, दीर्घ रोम और नखों वाला है, मैथुन कर्म के विकार से सर्वथा उपशान्त है, उसको विभूषा (शोभा शृङ्गार ) से क्या प्रयोजन है ? ____टीका- इस गाथा में अठारहवें स्थान के विषय में प्रतिपादन किया गया है कि जो साधु द्रव्य और भाव से नग्न है अर्थात् जिन-कल्पी है या कुत्सित वस्त्र धारण करने वाला है तथा जो द्रव्य से, शिरोलोच आदि से एवं भाव से पाँचों इन्द्रियों के और चारों कषायों के निग्रह से मुण्डित है तथा जिसके जिन कल्पिक अवस्था में रोम और नख बहुत बढ़े हुए हैं, इतना ही नहीं, किन्तु जो मुनि मैथुन क्रिया से भी सर्वथा उपशान्त हो गया है, ऐसे निर्विकारी साधु को विभूषा से कार्य ही क्या है ? अर्थात् जो शरीर पर किसी प्रकार का मोह नहीं करता वह विभूषा इस लिए करेगा। शरीर का श्रृंगार अनेक प्रकार के सूक्ष्म एवं स्थूल दोषों को पैदा करने वाला है। शरीर के श्रृंगार में लगे रहने पर आत्मा का शृङ्गार कभी नहीं हो सकता। ... . उत्थानिका- अब आचार्य, प्रयोजनाभाव कथन करके अपाय-सद्भाव का प्रतिपादन करते हैं: विभूसावत्तिअंभिक्खू, कम्मं वंधइ चिक्कणं। संसारसायरे घोरे, जेण पडइ दुरुत्तरे॥६६॥ विभूषाप्रत्ययं . भिक्षुः, कर्म बनाति चिक्कणम्। संसारसागरे घोरे, येन पतति दुरुत्तरे॥६६॥ पदार्थान्वयः- भिक्खू-साधु विभूषावत्तिअं-विभूषा के निमित्त चिक्कणं-वह दारुण कम्म-कर्म वंधइ-बाँधता है जेण-जिससे दुरुत्तरे-दुस्तर घोरे-रौद्र संसारसायरे-संसार-सागर में पडइ-पड़ता है। मूलार्थ- जो साधु, शरीर सौन्दर्य के ध्यान में लग जाता है, वह सौन्दर्य के लिए इस प्रकार के सचिक्कण कर्म बाँध लेता है। जिनसे वह साधु दुस्तर एवं रौद्र संसार-सागर में जा पड़ता है। १जीर्ण शीर्ण एवं परिमित वस्त्र धारी मुनि भी मूभिाव के न होने पर उपचार से नग्न ही कहे जाते हैं। देखिए- अचेलक शब्द की व्युत्पत्ति-'कुत्सितं वा चेलं वस्त्रं यस्यासावचेलकः'प्रव.७८ द्वार। 2. यह दीर्घ रोम नख रखने का व्यवहार जिन-कल्पियों का ही है, स्थविर कल्पियों का नहीं। स्थविर कल्पियों के नख तो प्रमाणोपेत ही होते हैं, जिससे वे अन्धकार आदि के समय किसी अन्य मुनि को न लग सकें। षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [261