________________ आयुपर्यन्त बड़ी दृढ़ता के साथ पालन करते हैं। यह बात बड़ी ही दुष्कर है। सदैव शरीर की शुश्रूषा से पृथक् रहना किसी बलवान् आत्मा का ही काम है। निर्बल आत्माएँ इस घोर व्रत के पालन से प्रायः स्खलित हो जाती हैं। इसी लिए सूत्रकार ने इस व्रत के लिए 'घोर' शब्द का विशेषण दिया है। उत्थानिका- अब आचार्य, 'फिर इसी विषय से संबंधित' उवट्टन आदि के लगाने का भी निषेध करते हैं:सिणाणं अदुवा कक्कं, लोद्धं पउमगाणि अ। गायस्सुव्वट्टणट्ठाए , नायरंति कया इवि॥६४॥ स्नानमथवा कल्कं, लोभ्रं पद्मकानि च। . गात्रस्योद्वर्तनार्थं , नाचरन्ति कदाचिदपि॥१४॥ पदार्थान्वयः- सिणाणं-स्नान अदुवा-अथवा कक्वं-कल्क (चन्दनादि सुगन्धित द्रव्य) लोद्धं-लोध पउमगाणि-कुंकुम (केसर प्रमुख) अ-च शब्द से अन्य सुगन्धित द्रव्य भी गायस्सव्वडणद्वाए-अपने शरीर के उद्वर्तन के लिए कयाइवि-कदाचित भी नायरंति-आचरण नहीं करते। __ मूलार्थ- जो साधु शुद्ध-संयम पालन के इच्छुक हैं, उन्हें स्नान के समान ही चन्दन, लोध, कुंकुम, केसर आदि सुगन्धित द्रव्यों का अपने शरीर के उद्वर्तन के लिए कदापि सेवन नहीं करना चाहिए। - टीका-जिस प्रकार साधु के लिए स्नान का निषेध है, ठीक इसी प्रकार सुगन्धमय द्रव्यों का शरीर पर लेप करने का तथा उद्वर्तन क्रियाएँ करने का भी सर्वदा निषेध है। स्नानदेशस्नान, सर्वस्नान कल्क-चन्दन आदि द्रव्य, लोध्र-गन्ध द्रव्य, कुंकुम केसर अथवा अन्य इसी प्रकार के जितने भी सुगन्धित द्रव्य हैं; उन सभी को साधु, कभी भी अपने शरीर के उद्वर्तनादि के लिए आचरण न करे। क्योंकि, उक्त पदार्थों के आसेवन करने से मन में विकृति उत्पन्न होने की सम्भावना की जा सकती है। जिससे फिर चारित्र का पालन करना असंभव नहीं तो, कठिन अवश्य हो जाता है। अतः संयम रक्षा के लिए यह सभी कृत्य शास्त्रकार ने वर्जित किए हैं। उत्थानिका-अब आचार्य महाराज, 'शोभा-वर्जन' नामक अन्तिम अठारहवें स्थान का वर्णन करते हैं: नगिणस्स वावि मुंडस्स, दीहरोमनहसिणो / मेहुणाओ उवसंतस्स, किं विभूसाइं कारिअं॥६५॥ नग्नस्य वाऽपि मुण्डस्य, दीर्घरोमनखवतः / / मैथुनादुपशान्तस्य , किं विभूषया कार्यम्॥६५॥ 260] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्