________________ सन्ति इमे सूक्ष्माः प्राणिनः, घसासु भिलुकासु च। यांश्च भिक्षुःस्नान स्नानंकुर्वन्) विकृतेनोत्प्लावयति॥६२॥ पदार्थान्वयः- घसासु- क्षार वाली शुषिर भूमि के विषय में भिलगासु-भूमि की दराड़ों के विषय में मे-ये त्रस-स्थावर सुहुमा-सूक्ष्म पाणा-प्राणी संति-हैं, अतएव जेअ-जिन को सिणायंतो-स्नान करता हुआ भिक्खू-साधु वियडेणुप्पिलावए-प्रासुक जल द्वारा भी बहा देता है। मूलार्थ-शुषिर( पोली) तथा राजियुक्त (दराड़ोंवाली) भूमि में अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव होते हैं। फिर चाहे प्रासुक जल से भी स्नान करो, तो भी उन जीवों के उत्प्लावन से विराधना अवश्य होती ही है। टीका- इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, जो साधु प्रासुक-जल से भी स्नान करता है, वह भी संयम-विराधना करता है। जो भूमि ऊषर (क्षार युक्त) पोली है तथा राजियों (लंबी-लंबी दराड़ों) से युक्त है, स्नान करने से तद्गत-जीवों की विराधना होती है। अभिप्राय यह है कि, क्षार भूमि प्रायः पोली होती है, उसमें जीव रहते हैं। फटी हुई भूमि में दरारें होती हैं और उसमें भी नाना प्रकार के सूक्ष्म जीव निवास करते हैं, कीड़ी आदि के बिल भी होते हैं। जब भिक्षु स्नान करेंगा, तब उक्त भूमि में जल प्रविष्ट हो जाने से तद्गत जीव अवश्य बह जाएँगे. जिससे संयम की विराधना अवश्यंभावी है। यदि यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो जाए कि यदि उक्त-प्रकार की भूमि न हो तो फिर स्नान करने में क्या दोष है ? उत्तर में कहना है कि, यदि इस प्रकार की भूमि न हो तो भी पानी तो अवश्यमेव बहेगा, जिस से फिर भी असंयम होने की संभावना निश्चित रूप से ही है। उत्थानिका- अब आचार्य, प्रस्तुत स्थान का निगमन करते हुए कहते हैं:-. तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा। जावजीवं वयं घोरं, असिणाणमहिट्ठगा // 13 // तस्मात् ते न स्नान्ति, शीतेन उष्णेन वा। यावज्जीवं व्रतं घोरं, अस्नानमधिष्ठातारः // 63 // पदार्थान्वयः- तम्हा-इसलिए ते-संयम-पालक साधु सीएण-शीतल जल से वाअथवा उसिणेण-उष्ण जल से कभी नसिणायंति-स्नान नहीं करते। अत: वे जावज्जीवं-यावज्जीव के लिए घोरं-घोर असिणाणं-अस्नान नामक वयं-व्रत को अहिट्ठगा-धारण करने वाले होते हैं। मूलार्थ- अतएव साधु, शीत जल से अथवा उष्ण जल से कदापि स्नान नहीं करते / वे यावज्जीवन इस 'अस्नान' नामक घोर व्रत का पूर्णतया पालन करते हैं। टीका-जीवों की रक्षा, काम-विकार से निवृत्ति और कठिन तपश्चर्या का पालन, इन सभी कारणों को लक्ष्य में रख कर दया-पालक साधु, शीत--जल से अथवा उष्ण-जल से कभी स्नान नहीं करते हैं। वे पवित्रात्मा-मुनिराज इस 'अस्नान' नामक अतीव दुष्कर व्रत का षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [259