________________ कोई एक कारण पड़ने पर गृहस्थ के घर पर बैठ सकता है। क्योंकि इनको पूर्वोक्त दोषों के हो जाने की संभावना नहीं है। टीका-इस गाथा में उक्त विषय का अपवाद वर्णन किया गया है। जो साधु अत्यन्त वृद्ध है तथा व्याधि से पीड़ित है या परम-तपस्वी है, वह यदि गोचरी के लिए गया हुआ गृहस्थ के घर पर जा कर बैठ जाए तो कोई दोष नहीं। उसे श्री भगवान् की आज्ञा का उल्लङ्घन करने वाला नहीं कह सकते। उसको पूर्व कथित दोषों की प्राप्ति नहीं होती। क्योंकि, वह अपनी शारीरिक निर्बलता के कारण से बैठता है, किसी अन्य कारण से नहीं। इस कथन से यह भली भाँति सिद्ध हो जाता है कि, श्री वीर भगवान् का दयामय-मार्ग अतीव उत्कृष्ट है। क्योंकि, वृद्ध, रोगी और तपस्वी की करूणा के लिए ही उक्त स्थान का यह अपवाद वर्णन किया है। सभी स्वस्थों और अस्वस्थों को एक तरह समझने से दया-धर्म का सत्यानाश हो जाता है। उत्थानिका- अब आचार्य, 'स्नान नामक' सतरहवें स्थान के विषय में कहते हैं:वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए। वुकंतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो॥११॥ व्याधितो वा अरोगी वा, स्नानं यस्तु प्रार्थयते। व्युत्क्रान्तो भवति आचारः, (त्यक्तो) भवति संयमः॥६१॥ पदार्थान्वयः-वाहिओ-रोगी वा-अथवा अरोगी वा-अरोगी (रोगहीन) जोउ-जो . कोई भी साधु सिणाणं-स्नान की पत्थए-इच्छा करता है, उसका आयारो-आचार वुक्कंतोव्युत्क्रान्त (भ्रष्ट) होइ-हो जाता है तथा संजमो-उसका संयम भी जढो-हीन (त्यक्त) हवइ-हो जाता है। मूलार्थ- स्वस्थ और अस्वस्थ जो कोई भी साधुस्नान की इच्छा करता है, वह अपने सदाचार से एवं संयम से सर्वथा भ्रष्ट हो जाता है। : टीका- इस गाथा में सतरहवें स्थान के विषय में प्रतिपादन किया गया है, जो साधु रोग से ग्रस्त है, या रोग से रहित अर्थात् किसी भी दशा में है, अङ्गप्रक्षालनादि-रूप स्नान की प्रार्थना करता है, उसका आचार भ्रष्ट हो जाता है, इतना ही नहीं, किन्तु उसका संयम भी शन्य रूप हो जाता है। "जढः परित्यक्तो भवति संयमः प्राणिरक्षणादिक अप्कायादिविराधनादिति" अर्थात्- वह सम्यक्तया प्राणियों की रक्षा न कर सकने एवं अप्कायादि की विराधना करने से संयम रहित हो जाता है। स्नान' श्रृंङ्गार का मुख्य अङ्ग है। इससे काम-वासना में विशेष वृद्धि होती है। अतः यह व्रती को संयमाचार से पतित करने वाला है। इस स्थान पर शृङ्गार का मुख्य अङ्ग होने से स्नान का ही निषेध किया गया है। किन्तु मल आदि की शुद्धि के लिए जो मलिन (अङ्गविशेषों) का प्रक्षालन किया जाता है, उसका निषेध नहीं किया है। उत्थानिका-अब आचार्य जी, 'यदि प्रासुक-जल से स्नान किया जाए, तब भी दोष होगा कि नहीं ?' इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं संति में सुहुमा पाणा, घसासु भिलगासु अ। / जे अभिक्खूसिणायंतो, वियडेणुप्पिलावए॥६२।। 258] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्