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________________ अयोग्य काम नहीं करना चाहिए। ऐसे काम करने वाले के मस्तक पर कलङ्क का काला टीका लगे बिना नहीं रह सकता। उत्थानिका-अब आचार्य जी, फिर इसी विषय का कथन करते हैं:अगुत्ती बंभचेरस्स, इथिओ वावि संकणं। कुसीलवड्ढणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए॥५९।। अगुप्तिर्ब्रह्मचर्यस्य , स्त्रीतोवापि शङ्कनम्। कुशीलवर्धनं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेत्॥५९॥ पदार्थान्वयः- गृहस्थों के घरों में बैठने से बंभचेरस्स-ब्रह्मचर्य की अगुत्ती-अगुप्ति होती है वा-और इथिओवि-स्त्रियों से भी संकणं-शङ्का उत्पन्न होती है, अत: कुसीलवड्ढणंकुशील के बढ़ाने वाले ठाणं-इस स्थान को साधु दूरओ-दूर से ही परिवज्जए-वर्ज दे। - मूलार्थ- गृहस्थों के घरों में बैठने से ब्रह्मचर्य की अगुप्ति होती है तथा स्त्रियों को देखने से ब्रह्मचर्य में शङ्का उत्पन्न होती है। अतएव कुशील के बढाने वाले इस नीच स्थान को ब्रह्मचर्य-व्रती साधु दूर से ही त्याग दे। टीका- इस गाथा में पुनः उक्त विषय का ही वर्णन किया गया हैं। जैसे कि, जब घरों में बैठना होगा तब स्त्रियों को बार बार देखने से कैसा ही दृढ़व्रती क्यों न हो' ब्रह्मचर्य व्रत की अगुप्ति अवश्य हो जाती है। क्योंकि नित्य का संसर्ग बहुत बुरा होता है। एक ब्रह्मचर्य की अगुप्ति होगी इतना ही नहीं प्रत्युत स्त्री की विकार-भरी मुखाकृति को देख-कर तो समस्त संयम वृत्ति में ही नाना प्रकार की शङ्काएँ उत्पन्न होने लग जाती हैं / अतः यह स्थान कुशील का (दुःख-भाव का) बढ़ाने वाला है, इसलिए शुद्ध-संयमी साधुओं का कर्त्तव्य है कि, वे इसे दूर से ही छोड़ दें और गृहस्थों के घरों में जाकर न बैठें। वृत्तिकार भी यही लिखते हैं "स्त्रीतश्चापि शङ्का भवति तदुत्फुल्ललोचनदर्शनादिनाऽनुभूतगुणायाः कुशीलवर्द्धनं स्थानम्उक्तेनप्रकारेणासंयमवृद्धिकारकमिति।" . . उत्थानिका- अब आचार्य महाराज, इस स्थानक के अपवाद बताते हैं:तिन्हमन्नयरागस्स , निसिज्जा जस्स कप्पइ। जराए अभिभूअस्स, वाहिअस्स तवस्सिणो॥६०॥ त्रयाणामन्यतरस्य ,निषद्या यस्य कल्पते। जरयाऽभिभूतस्य ,व्याधितस्य तपस्विनः॥६०॥ ... पदार्थान्वयः- तिन्हं-तीनों में से अन्नयरागस्स-अन्यतर (कोई एक) जस्स-जिसको निसिज्जा-गृहस्थ के घर (कारण से) बैठना कप्पइ-कल्पता है। यथा जराए-बुढ़ापे से अभिभूअस्सअभिभूत हुए को वाहिअस्स-व्याधिग्रस्त को तथा तवस्सिणो-तपस्वी को, क्योंकि, सूत्रोक्त दोषों की उन्हें सम्भावना नहीं हो सकती। मूलार्थ- अत्यन्त वृद्ध, असमर्थ-रोगी, प्रधान-तपस्वी इन तीनों व्यक्तियों में से षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [257
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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